पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/३६

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३२ अलंकारचंद्रिका दो-मति सी नति, नति सी बिनति, विनती सी रति चारु । रति सी गति, गति सी भगति, तो मैं पवनकुमारु ॥ वंस सम वखत, वखत सम ऊँचो मन, मन सम कर, कर सम करी दान के। सवैया न्यारो न होत बफारोज्यों धूम ते, धूम ज्यो जात घने घन में मिलि । 'दास' उसास मिले जिमि पौन में, पौन ज्यों पैठत प्राधिन में पिलि ॥ कौन जुदो कर लोनज्यों नीर में, नीर ज्यों छीर में जात खरो मिलि । यो मति मेरी मिली मन मेरे सों, मो मन गो मनमोहन सों मिलि ॥ दो to-बच सी माधुरि मूरती, मूरति सी कल कीति । कीरति लौ सव जगत में, छाय रही तब नीति ॥ पुनः-सुभ सरूप के सम नुमति, मुमति सरिस गुन ज्ञान। मुगुन ज्ञान सम उद्यमहु उद्यम से फल जान ।। ४-अनन्वयोपमा दो०-जहाँ होय उपमेय को, उपमेयै उपमान । तहाँ अनन्वय कहत हैं, जे जन परम सुजान ॥ विवरण-जहाँ उपमान के अभाव के कारण एकही वस्तु उपमेय और उपमान दोनों का काम दे, वहाँ अनन्वयोपमालंकार होगा। उ० १-लही न कतहुँ हारि हिय मानी । इन सम ये उपमा उर आनी ॥ उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कवि कोविद् लहैं । बल बिनय विद्या सील सोभा सिंधु इन सम यइ अहै ।। मिली न और प्रभा रती, करी भारती दौर । सुन्दर नन्दकिसोर से, सुन्दर नन्दकिसोर ॥ निरवधि गुन निरुपम पुरुष, भरत भरत सम जानि ।