सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रतीप ३५ जोन्ह को हँसति जोति हीरा मनि मदिन, कंदरन मैं छबि कुहू की उछरति है। ऐसो ऊँचो दुरग महाबली को जामैं, नखतावली सों बहस दिपावली करति है। सवैया उत स्याम घटा इत हैं अलकै बकपाँति उतै इत मोती लरी। उत दामिनी दंत चमक इतै उत चाप इतै भ्रुव बंक धरी ॥ उत चातक तो पीउ पीउ रटै बिसरै न इतै पिउ एक घरी। उत बूंद अखंड इतै अँसुवा बरसा बिरहीनि तें होड़ परी ॥ सूचना-इसी को केशवदास ने 'संकीर्णोपमा' कहा है और उदाहरण यों दिया है-बिधु कैसो बंधु, किधौं चोर हास्य रस को कि कुंदन को बादी किधौं मोतिन को मीत है ॥......किधौं केशोदास रामचन्द्र जू को गीत है। यहाँ रामजी के यश की 'श्वेतता' दरसाने के लिये बिधु को बंधु, हास्यरस को चोर, कुंदन को बादी ( मुद्दई ) और मोती को मित्र कहा गया है। इसी प्रकार का कथन 'ललितोपमा' कहलाता है, क्योंकि ऐसे कथनों से एक प्रकार की समता ही प्रकट होती है। ७-प्रतीप * सूचना-'प्रतीप' शब्द का अर्थ है 'उलटा' । अलंकार शास्त्र में इसका अर्थ लिया जाता है -'उपमा के अंगों का उलटफेर'। उपमा अल- कार में जिस तरह उपमेय को उपमान के समान कहते हैं, ठीक उसके प्रतिकूल इस अलंकार में उपमान को उपमेय के समान कहते हैं। ऐसा

  • इस अलंकार को फारसी, अरबी, तथा उर्दू में 'तसबीह माकूस' का

सकते हैं।