पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/४०

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अलंकारचंद्रिका करने से उपमेय का उत्कर्प उपमालंकार की अपेक्षा कुछ और अधिक बढ़ जाता है । यही इस अलंकार का तात्पर्य है। प्राचीनों ने इस अलंकार के पांच प्रकार माने हैं। जैसे- (पहला प्रतीप) दो०-जहँ प्रसिद्ध उपमान को, पलटि करिय उपमेय । तासों प्रथम प्रतीप कवि, वर्णत बुद्धि अजेय ॥ पायन से गुललाला जपादल पुंज वधूक प्रभा बिथरै है। हाथ से पल्लव नौल रसाल के लाल प्रभाव प्रकास करें हैं लोचन की महिमा सी त्रिवेनी लग्खे 'लछिराम' त्रिताप हरै हैं । मैथिली आनन से अरविंद कलाधर पारसी जानि पर हैं ॥ सो०-तो पद से अनुमानि, अरुण अमल कोरे कमल । याही ते सनमानि, अवतंसित मोहन करे॥ दो०-बिदा किये बटु बिनय करि, फिरे पाय मन काम । उतरि नहाये जमुनजल, जो सरीर सम स्याम ॥ इन उदाहरणों पर विचार करने से प्रत्यक्ष जान पड़ता है कि पैर, हाथ, लोचन, मुख और शरीर ( वा शरीर का रंग) जो उपमा अलंकार में उपमेय माने जाते, वे यहां उपमान हो गये हैं और गुललाला, जपादल, बंधूक, रसालपल्लव, त्रिवेणी, कमल और यमुनाजल जो उपमा में उपमान ठहराये जाते, यहाँ उपमेय हो गये हैं । यही 'उपमा' के अङ्गों का उलटफेर है (दूसरा प्रतीप) दो०-जहाँ होय उपमान सों, उपमेय को अमान । तहँ दूसरो प्रतीप है, नव प्राचीन प्रमान ॥