पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/४६

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४२ अलंकारचंद्रिका रूपक कहते हैं। तद्रूप रूपक में अपर, दूसरो, और, अन्य अथवा भिन्नतासूचक कोई शब्द कहकर केवल तद्रूपता प्रकट की जाती है, जैसा कि उदाहरणों से स्पष्ट है । इस अभेद रूपक में ऐसा नहीं किया जाता, वरन् उपमान को ठीक उपमेय का रूप ही मानकर वर्णन करते हैं। ( अधिक अभेद रूपक) जहाँ उपमेय में उपमान से कुछ अधिक गुण दिखत्नाकर एकरूपता स्थापित की जाय, वहाँ यह अलंकार होता है। यथा- 11 जंग में अंग कठोर महा मदनीर झर झरना सरसे हैं। झूलन रंग घने ‘मतिराम' महीरुह फूलि प्रभान फंसे हैं सुन्दर सिंदुर मंडित कुंभन गैरिक लंग उतंग लगे हैं। भाऊ दीवान उदार अपार सजीव पहार करी बकसे है। यहाँ हाथी को पहाड़ माना है, पर इतना अधिक कहा है कि ये हाथी 'सजीर' पहाड़ हैं, ( पहाड़ निर्जीव वस्तु है )। पुनः-दो०-तुव मुख में अरु चंद में कळू न भेद लखाय । एक बगैर कलंक के, तुव मुख जानो जाय ॥ नव विधु बिमल तात जस तोरा । रघुबर किंकर कुमुद चकोरा ॥ उदित सदा अथइहि कबहूँ ना । घटिहि न जगनभ दिन दिन दूना !! रन बन घूमै तुव भुज लतिका पै चढ़ी, कढ़ी म्यान बाँबी ते विषम बिष भरी है। जाअरि कोडसैसोतो तजै प्रान ताही छिन, गारडू अनेक हारे झारे ते न झरी है। भनत 'कबिंद्राउ' बुद्ध अनिरुद्ध तने, जुद्धबीरता सौं एक ते ही बस करी है।