पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/४५

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रूपक 88 दो-भिरत फिरत जहँ तहँ कहो मानत नहिं बदफैल । यह आजन है दूसरो बिन बिषान को बैल ॥ दो०-हौ समदृष्टी संभू तुम जग जाहर जसवंत । हो ब्रह्मा मुख चारि बिन मरुपति विस्व बदंत ॥ दो-तुव अरिनारिन के लिये सुनु जसवंत महीप । बन औषधियाँ होति हैं बिन कजल के दीप ॥ साहि तनै सिवराज भूषन' सुजस तव, बिगिर कलंक चंद उर आनियतु है। पंचानन एक ही बदन गनि तोहि, गजबदन गजानन बिना बखानियतु है ॥ एक सीस ही सहससीस कला धरिबे को, दोई दृग सो सहसदृग मानियतु है। दोई कर सो सहसकर मानियत तोहि, दोई बाहु सो सहसबाहु जानियतु है ॥ ( सम तद्रूप रूपक) नैन कमल ये ऐन हैं और कमल केहि काम । स०-छाँह करें छितिमंडल को सब ऊपर यो 'मतिराम' भये हैं। पानिप को सरसाबत हैं सिगरे जग के मिटि ताप गये हैं। भूमि पुरंदर भाऊ के हाथ पयोदन ही के सुकाज ठये हैं । पंथिम के पथ रोकिबे को नम बारिवृन्द वृथा उनये हैं ।। दो०- रच्यौ विधाता दुहुन लै सिगरी सोभा साज । तू सुन्दरि सचि दूसरी यह दूजो सुरराज ॥ पुनः-अपर रमा ही मानियत तोहि साध्वी गुनवंति । २-अभेद रूपक उपमेय और उपमान की अभेदतासूचक रूपक को अभेद