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पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/५६

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५२ अलंकारचंद्रिका १–शुद्धापह्नुति दो०-दुरै सत्य उपमेय को प्रगट करै उपमान । शुद्धापहृति कहैं तेहि जे कविंद मतिमान ॥ विवरण-उपमेय को असत्य ठहराकर उपमान का स्थापन किया जाय, वही शुद्धापह्नुति अलंकार है । जैसे- मैं जु कहा रघुबीर कृपाला । बंधु न होय मोर यह काला । यहाँ सत्य बंधुत्व को असत्य ठहराकर उपमानरूपी असत्य कालत्व का स्थापन है। पुनः-पहिरे स्याम न पीतपट घन मैं बिज्जु बिलास। पुनः-सारद ससि नहिं सुंदरी उदयो जस जसवंत । अंक न संग रही जु लगि भिच्छुक जन की पंत । पुनः-नहिं सुधांशु यह है सखी नभगंगा को कंज। ये न घने घन कुंजरमाल है, या चपला न दिपै तरवारी। गर्जनि नाहिं नगारे बजै, बकपाँति नहीं गजदंत निहारी। ये न मयूर जो बोलत हैं बिरदावलि बंदि बदै जस भारी। या नहिं पावस काल अली यह तो सति है अमरेस सवारी। २-हेत्वापनुति दो०-सुद्धापनुति में जहाँ कहिये हेतु बनाय । हेतु अपह्नति कहत हैं ताहि सकल कविराय । विवरण- शुद्धापह्नुति में जब कोई कारण भी बतला दिया जाय, तब वही हेत्वापह्नुति हो जायगी। जैसे- दो०-रात माँझ रवि होत नहिं, ससि नहिं तीव्र सु लाग । उठो लखन अवलोकिये, बारिधि सो बड़वाग । यहाँ चंद्रमा को देखकर रामचंद्र कहते हैं-हे लक्ष्मण, देखो