पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/५७

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अपह्नुति ५३ तो यह चंद्रमा नहीं है, क्योंकि इसकी किरण तीव्र जान पड़ती है और रात्रि में सूर्य का होना असम्भव है इससे यह सूर्य भी नहीं हैं, अतः यह समुद्र से निकलती हुई बड़वाग्नि ही है। यदि केवल इतना ही कहा जाता कि “यह चंद्रमा नहीं है, बड़वाग्नि है” तो शुद्धापहनुति होती। चंद्रमा के निषेध का कारण "तीव लगता है" कहा भी गया है, अतः हेत्वापनुति है। इसी प्रकार 'सूर्य नहीं, इसका कारण भी कि 'रात्रि है' बतलाया गया है। इसी प्रकार और भी समझना । यथा- सेत सरीर हिये विष स्यामकला फन री मनि जानु जुन्हाई । जीभ मरीचि दसौ दिसि फैलती काटत जाहि बियोगन ताई। सीस ते पूंछलौं गात गरयो पै डॅसे बिन ताहि परै न कलाई । सेस के गोत के ऐसहि होत हैं चंद नहीं या फनिंद है भाई । दो-सिव सरजा के कर लसै सो न होय किरपान । भुज भुजगेस भुजंगिनी भखति पौन अरि प्रान ॥ ३-पर्यस्तापर्तुति दो०-धर्म और मैं राखिये धर्मी साँच छिपाय । पर्यस्तापह्नुति कहैं ताहि सकल कविराय ॥ विवरण-(पर्यस्त=फेंका हुआ) किसी वस्तु में उसके सच्चे धर्म का निषेध इसलिये किया जाय कि वह धर्म किसी दूसरी वस्तु में आरोपित करना है। यथा- है न सुधा यह है सुधा संगति साधु समाज । यहाँ 'सुधा' में सुधात्व (अमरत्वगुण ) का निषेध इसलिये किया गया कि उसका धर्म साधुसमाज की संगति में स्थापित करना मंजूर है।