६२ अलंकारचंद्रिका नेत्रों से मृगियों, कुमुदपुष्पों तथा मीनों का लजाना, असिद्ध आधार है, और इसी लज्जा के कारण मृगी वन में रहने लगीं। कुवलय (कुई के फूल ) दिन में मलिन रहते हैं, और मछलियाँ पानी में डूबी रहती हैं, ये बातें ठीक नहीं। ४-मोर मुकुट की चंद्रकनि, यो राजत नंदनंद । मनु ससिसेखर के. अकस, किय सेखर मत चंद ॥ ५-दो० -भाल लाल बंदी ललन आखत रहे बिगाज । इंदु कला कुज में बसी मनहु गहु भय भाजि ।। ६-भुजन भुजंग सरोज नैनन बदन विधु जीन्यो नर्गन । बसे कुहरन सलिल नभ उपमा दूरी डरनि ।। यहाँ "राम के भुजों से हारकर सर्प बिलों में रहने लगे, नेत्रों से हारकर कमल पानी में जा इबे और मुख से हारकर चन्द्रमा आकाश में जा बसा और अन्य उपमाए भी डरकर छिप रहीं" ऐसा कहा गया है। इन उपमानों का हार जाना वा डर जाना 'असिद्ध आधार' है और उपमानों के वहाँ-वहाँ रहने का कारण जो कल्पित किया गया है वह ठीक नहीं है। इसी से 'असिद्धास्पद हेतूप्रेक्षा है । पुनः- उपमा हरि तन देखि लजाने । कोउ जल में कोउ बनहि रहे दुरि कोऊ गगन उड़ाने ॥ मुख देखत ससि गयो अंबर को तड़ित दसन छविहंगे। मीन कमल कर चरन नयन डर जल मो कियो बसगे। भुजा देखि अहिराज लजाने बिबरनि पैठे धाय । कटि निरखत केहरि डरि मानो बन विच रह्यो दुराय ॥
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