पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/६७

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उत्प्रेक्षा ३-फलोत्प्रेक्षा अफल को फल मानने की उत्प्रेक्षा करना, फलोत्प्रेक्षा है। इसके भी दो भेद हैं- १-सिद्धास्पद-जिसकी उत्प्रेक्षा का अाधार सिद्ध हो (संभव हो)। २-असिद्धास्पद-जिसकी उत्प्रेक्षा का आधार असिद्ध हो (असंभव हो) १-सिद्धास्पद फलोत्प्रेक्षा १-दो०-मधुप निकारन के लिये मानो रुके निहारि । दिनकर निज कर देत है सतदल दलनि उघारि ॥ सूर्योदय से कमलों का खिलना सिद्ध आधार है, परन्तु कवि कल्पना करता है कि मानों रात भर बंद रहे हुए भौंरों को कैद से छुड़ाने के लिये सूर्य कमलों को अपने करों ( किरणों ) से खोल देता है। सूर्य का कमलों को खिलाना इसलिये नहीं होता कि उसमें बंद रहे हुए भौंरे बंद से छूट जायँ, वरन् वह स्वयं सिद्ध विषय है। भौरों का कैद से छूटना यह अफल है उसे ही फल कल्पित किया है, अतः फलोत्प्रेक्षा है। २-दुवन सदन सबके बदन, सिव सिव आठो जाम। निज बचिवे को जपत जनु, तुरको हर को नाम ॥ शिव-शिव कहने से मनुष्य संकटों से बच सकता है, यह ( हिन्दूधर्मानुसार ) सिद्ध आधार है। परन्तु मुसलमान लोग इस फल प्राप्ति के लिये शिव-शिव (शिवाजी का नाम ) नहीं कहते थे, वरन् डर से बहुधा उनकी चर्चा किया करते थे, उस चर्चा में उनका नाम बार-बार लेना पड़ता था। मौज भयो मिथिलापुर में चतुरंग चमू सजि आई बरात हैं। त्यों उछल तें जवाहिर की लरै टूटें तुरंगन के लहरात