पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/६८

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अलंकारचंद्रिका लक्वनराम को या दसरथ लिये निजगोदन मोद अमात हैं। ताप मिटाइवे के हित मानो पपीहरा स्वाती की बूंद नहात हैं २--असिद्धास्पद फलोत्प्रेक्षा १-तो पद समता को कमल जल सेवत इक पाय । कमल स्वतः जल में रहता है, राधिका के चरणों की समता- रूपी फल की प्राप्ति के लिये नहीं । जड़ कमन में समता की इच्छा का होना असिद्ध अाधार है । इसलिय यहाँ असिद्धास्पद् फलोत्प्रेक्षा है। २-दमयंती-कचभार प्रभा से पिच्छभार हतप्रभा निहार । कार्तिकेय की सेवा करता है मयूर खलु संयम धार ॥ यहाँ मयूर में दमयन्ती के बालों की शोभा की समताप्राप्ति- रूपी फल की इच्छा का होना असिद्ध आधार है ( सर्वथा असं- म्भव है ) और यह कहना कि उसी फल की प्राप्ति के लिय मयूर कार्तिकेय की सेवा करता है, अफल को फल कल्पित करना है। यही असिद्धास्पद फलोत्प्रेक्षा है । इसमें खलु ( निश्चय ) उत्प्रेक्षा का वाचक है। बारि में बूड़ि परै रवि को सरि. पंकज पायन की गहिवे को। बास उपास करें वन मैं कटि की सरि सिंहनीयो चहिब को ॥ रोज अन्हात है छीरधि में ससि तो मुख की समता लहिवे को । ऊपर जितने उदाहरण दिये गये हैं उन सवम उत्प्रेक्षा- वाचक शब्द मानो, जानो, खलु, मनु, जनु, इव, ध्रुव, इत्यादि मौजूद हैं। परन्तु कहीं-कहीं विना वाचक शब्द के भी उत्प्रेक्षा की जाती है। ऐसी उत्प्रेक्षा गम्योत्प्रेक्षा, गुप्तोत्प्रेक्षा वा ललितो त्प्रेक्षा कही जाती है।