पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/७०

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अलंकारचंद्रिका लातिशयोक्ति, (४) अक्रमातिशयोक्ति, (५) रूपकातिशयोक्ति और (६) अत्यंतातिशयोक्ति । १-भेदकातिशयोक्ति दो०-औरै शब्दन की जहाँ उत्कर्पता सुबेस । भेदक अतिशय उक्ति तहँ मानत सुकवि नरेस ॥ 'ओर औरै' शब्द इस अलंकार का वाचक है। जैसे- दो०-और कछु बोलनि चलनि और कछु मुसकानि । औरै कछु सुख देत है सके न वैन बखानि ॥ दो०-अनियारे दीरघ नयनि किती न तरुनि समान । वह चितवनि और कछुक जेहि बस होत सुजान ॥ कभी-कभी 'न्यारी रीति है' 'और ही बात है। 'अनोखी बात है' इत्यादि या इसी अर्थ के और भी शब्द इस अलंकार के वाचक होते हैं । जैसे- जगत को जैतवार जीत्यो अवरंगजेब न्यारी रीति भूतल निहारी सिवराज की। दो०-अवलोकनि बोलनि हँसनि डोलनि और और । श्रावनि मृदु गावनि सबै और वाक तौर ॥ मंगलीक बद्न बिलास 'लछिराम' और कलॅगी मरोर मौर भाल सजवारे में। औरै पानि औरै बानि और चढ़ी सानभुज और धनुवान राम कर गजरारे में ॥ और हँसनि विलोकिवो, और बचन उदार । तुलसी ग्राम-बधून के, देखे रह न सँभार ॥ २--संबंधातिशयोक्ति दो०-जहँ अयोग्य है योग्य में जहँ अयोग्य में योग्य ।