पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/७३

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अतिशयोक्ति पंचवटी के बिहंग उमंग में बोलत बानी सुधारस घूटे । त्यो 'लछिराम' अदेव ललाट तें आयु की रेख के अंक वे छूटे । आसुरी हाथन ते पल एक में भाग सोहाग के भाजन फूटे। आगम श्रीरघुनाथ सुने मुनि-मंडली के मनबंधन छूटे। तब सिव तीसर नैन उघारा । चितवत काम भयो जरि छारा। विमल कथा कर कीन्ह अरंभा। सुनत नसाहिं काम मद् भा। दो०-आयो आयो सुनत ही सिव सरजा तुव नाँव । बैरिनारिदृगजलन सो बूड़ि जात अरि गाँव ॥ भूषन भनत साहि तनै सिवराज एते मान तव धाक आगे दिसा उवलति है । तेरो चमू चलिवे की चरचा चले ते चक्र- वर्तिन की चतुरंग चमू विचलति है । ४-अक्रमातिशयोक्ति दो० -कारन अरु कारज जहाँ होत एक ही संग । अक्रमातिशय उक्ति सो वरनत सुकवि सुढंग ॥ संधान्यो प्रभु बिसिष कराला । उठी उद्धि उर अंतर ज्वाला । पायन को जमुना उमहीं जल बाढ़ो जबै बसुदेव गरे लौं । हूँकत ही यदुनंदन के जमुनाजी वहीं तरवा के तरे लौं। दोहा-बानासन ते रावरे बान विषम रघुनाथ । दससिर सिर धर ते छुटे दोऊ एकहि साथ ॥ उठ्यो संग गजकर कमल चक्र चक्रधर हाथ । कर ते चक्र सु नक्रसिर धर ते बिलग्यो साथ ।। उद्धत अपार तुव ढुंभी धुकार साथ, लंधै पारावार बालबंद रिपुगन के । तेरे चतुरंग के तुरंगन के रंगे रज, साथ ही उड़ात रज पुंज हैं परन के ।