पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अलंकारचंद्रिका दच्छिन के नाथ सिवराज तेरे हाथ चढ़े, धनुष के साथ गढ़ कोट दुरजन के। 'भूषन' असीसैं तोहि करत कसीस, पुनि बानन के साथ छूट प्रान तुरकन के 1 सूचना-संग ही, साथ ही, एकै साथ, साथ अथवा इसी अर्थ का कोई शब्द इस अलंकार का वाचक जान पड़ता है। ५- रूपकातिशयोक्ति दो०-जहँ केवल उपमान कहि प्रगट करै उपमेय । रूपकातिशय उक्ति तहँ बरनत सुकवि अजेय ॥ विवरण-जहाँ केवल उपमान कहके उपमेयों का अर्थ समझा जाता है, वहां यह अलंकार होता है। जैसे- "कनकलता पर चंद्रमा धरै धनुष द्वै बान ।" यहाँ कनकलता-कोई स्त्री। चंद्रमा-मुख।-धनुष-मौहैं। बाण-नेत्र। ब्याह के समय रामचंद्रजी सीताजी के सिर में सिंदूर देते हैं- राम सीय सिर सेंदुर देहीं । उपमा कहि न जात कवि केहीं। अरुन पराग जलज भरि नीके। ससिहि भूष अहि लोभ अमी के। यहाँ अरुनपराग-सेंदुर। जलज-शंख वा कमल। शशि-सीताजी का मुख । अहि-रामजी का हाथ । सूचना-सूरदास इस अलंकार में अनेक पद कहे हैं। उनमें से एक यह है। उसमें राधिकाजी के समस्त अंगों का वर्णन है अद्भुत एक अनूपम बाग। जुगल कमल पर गज क्रीड़त है तापर सिंह करत अनुराग। इसको फारसी में 'सनअत तअज्जुब' कह सकते हैं।