पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

समासोक्ति ७३ ४-सिवराज साहिनुव सत्थ नित हय गल लक्खन संचरइ । यक्कय गयंद यक्कय तुरंग किमि सुरपति सरबरि करइ ॥ (दूसरे ढंग के उदाहरण ) १-जिनके जस प्रताप के आगे । ससि मलीन रबि सीतल लागे। २-जन्म सिंधु पुनि बंधु विष दिन मलीन सकलंक । सियमुख समता पाव किमि चंद बापुरो रंक ॥ ३-घटै वढे सकलंक लखि सब जग कहै ससंक। सीयबदन सम है नहीं रंक मयंक एकक ॥ १५-समासोक्ति दो०-जहँ प्रस्तुत में होत है अप्रस्तुत को भान । समासोक्ति तेहि कहत हैं कवि जन परम सुजान ॥ कवि इच्छा जेहि कथन की 'प्रस्तुत' ताको जानु । अनचाहे हूँ फुरि परै 'अप्रस्तुत' सो मानु ॥ विवरण [-जब किसी कथन में कविइच्छित अर्थ के अलावा (शब्दों की गम्भीर गठन के कारण ) कोई दूसरा अर्थ भी भास- मान होता है तब उस कथन में समासोक्ति अलंकार माना जाता है। ऐसे कथन में बहुधा ऐसे श्लिष्ट शब्द अनायास आ जाते हैं, जिससे दूसरे अर्थ का भान होने लगता है, परन्तु यह जरूरी नहीं है कि श्लिष्ट शब्दों के ही द्वारा यह अलंकार सिद्ध हो सके । अश्लिष्ट शब्दों से भी काम चल सकता है। ( अश्लिष्ट शब्दों द्वारा) ३-लोचन मगु रामहि उर पानी । दीन्हें पलक कपाट सयानी।

  • इस अलंकार को अंगरेजी में माडेल मेटफर' ( Model Meta-

phor ) कहते हैं।