पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७२ अलंकारचंद्रिका 'भूषन' भनत साहितनै सिवराज निज, चखत बढ़ाय करि तोहिं ध्याइयतु है। दीनता को डारिौ अधीनता विडारि दीन्ह दारिद को मारि तेरे द्वार आइयतु है। दो०-कवि तरुवर सिव सुजस रस सींचे अचरज मूल । सुफल होत है प्रथम ही पीछे प्रगटत फूल । ग्राह ग्रहीत गयंद मुख कढ़न न पाई 'बाहि'। पहले ही हरि आय के निजकर उधसा ताहि । १४--व्यतिरेक दो०-उपमा ते उपमेय में अधिक कछू गुन होय । व्यतिरेकालंकार तेहि कहैं सयाने लोय ॥ विवरण-जहाँ उपमान की अपेक्षा उपमेय में कुछ उत्कर्ष कहा जाय वहाँ यह अलंकार होता है । यह उत्कर्ष दो प्रकार से प्रकट किया जाता है- १-उपमेय में उपमान से कोई गुण अधिक कहा जाय । २-उपमान में कोई हीनता दिखाई जाय। [पहले ढंग के उदाहरण ] १-मुख है अंबुज सो सही मीठी बात बिसेष । २-संत हृद्य नवनीत समाना । कहा कबिन पै कहत न जाना। निज परिताप द्रवे नवनीता । पर दुख द्रवै सुसंत पुनीता । ३-सखि वामें जगै छन जोति छटा इत पीतपटा दिनरैन मड़ो। वह नीर कहूँ बरसै सरसै यह तो रसजाल सदा ही अड़ो। वह स्वेत लै जात अपानिप है यह रंग अलौकिक रूप गड़ो। कह 'दास' बरोबरि कौन करे धन ौ घनस्याम सो बीच बड़ो।