पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७८ अलंकारचंद्रिका ४-ढरै मधुमाधुरी पराग सुवरनसनी, सरस सलोनी पाप तापन के अन्त की। कामना जुगति की उकुति सरसावत सी छावै मधुराई कल कोकिल के भन्त की । 'गोकुल' कहत भरी गुनन गंभीर सीरी, कानन लौं श्रावति पियूषए सेवन्त की। ऐसी सुखदानी है न जानी जगती में और, कबिन की वानी बर वैहर बसन्त की । ५-पानिप के अागर सराहैं सब नागर, कहत 'दास' कोस में लख्योप्रकासमान में॥ रज के संयोग ते अमल होत जब तब, हरि हितकारी वास जाहिर जहान में ॥ श्री को भाय सहजे करत मनकाय थकै, बरनत बानी जा दलन के विधान में। एतो गुन देखो राम साहिब सुजान में, कि बारिज बिहान में कि कीमत कृपान में। सूचना-स्मरण रखना चाहिये कि अर्थश्लेप अलंकार बहुधा संदेहालंकार से सहायता ली जाती है, परन्तु मुख्यता श्लेप की होती है । इसलिये वही माना जाता है। उदाहरण नं. ३, ४ एवं ५ में देखो और समझो। १९-अन्योक्ति दो०-जहाँ सरिस सिर डारिकै कहै सरिस सों बात । सरिस के सिर डारि कै सरिस से बात कहना ॥ दो०-भयो सरिसपति सलिलपति अरु रतनन की खानि । कहा बड़ाई समुंद की जु पै न पीजत पानि ॥