पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/८३

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अन्योक्ति ७६ " यहाँ समुद्र पर ढारकर यह बात किसी ऐसे धनी के लिये कही गई है जो धनी तो बहुत बड़ा है, परंतु उससे किसी को कुछ सुख नहीं प्राप्त होता है । कवि की इच्छा ( प्रस्तुत ) यही समुद्र का वृत्तांत अप्रस्तुत है । पुनः- "काल कराल परै कितनो पै मराल न ताकत तुच्छ तलैया।' यहाँ हंस पर ढारकर यह बात कही गई है कि विवेकी पुरुष दुःख पाने पर भी अनुचित कार्य करने की ओर नहीं झुकते । पुनः-मानससलिलसुधाप्रतिपाली । जिये कि लवनपयोधि मराली । नवरसालबनबिहरनसीला । सोह कि कोकिल बिपिनकरीला। यहाँ हंसिनी और कोयल पर ढारकर यह जताया गया है कि सुकुमार और सुखभोगिनी स्त्रियाँ वनवास का कष्ट सहन नहीं कर सकतीं। पुनः- सुन दसमुख खद्योत प्रकासा । कबहुँ कि नलिनी करहिं बिकासा। यहाँ सीताजी कमलिनी पर ढारकर रावण से अपना वृत्त कहती हैं। हारे बाटवारे जे बिचारे मंजलिन भारे, दुखित महारे तिन को न सुख से दियो । बन के जे पंछी तिनहूँ के काम को न कछु, साँझ समै श्राय बिसराम उन ना लियो। आपने तन की न छाय करि सक्यौ मूढ़, 'दयानिध' कहै जग जन्म ही वृथा गयो। धाम को न आड़ भयो फूल फल को न लाड़, एरे ताड़ वृक्ष एतो बढ़िकै कहा कियो। यहाँ भी अप्रस्तुत ताड़ वृक्ष के वर्णन से किसी ऐसे बड़े मनुष्य का वर्णन प्रस्तुत है जिससे किसी का कुछ लाभ नहीं पहुँचता।