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पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/८६

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<P अलंकारचंद्रिका २१-व्याजस्तुति पहली दो०-देखत तो निंदा लगै समुझे अस्तुति होय । व्याजस्तुति भूपन सबै ताहि कहैं कबि लोय ॥ दो० -कहा कहाँ कहत न वनत सुरसरि तेरीरीति । ताके तू मूंड़े चढ़े जो श्रावै करि प्रीति ॥ यह देखने में तो गंगा की निंदा-सी जान पड़ती है, पर समझने से यो स्तुति होती है कि जो प्रेमसहित तेरे पास आता है उसे तू महादेव बना देती है और फिर उसकी जटा में बैठ जाती है। पुनः-भसम जटा बिष अहि सहित गंग कियो तै मोहि । भोगी ते जोगी कियो कहा कहीं अब तोहि ॥ दोहा-जमुना तुम अबिवेकिनी कौन लियो यह ढंग । पापिन सौं निज बंधु को मान करावति भंग ॥ [ पद्माकरकृत गंगालहरी से ] जोग जप जागै छाँड़ि जाहु ना परागै भैया, मेरी कही आँखिन के आगे सुतौ श्रावैगी। कहै 'पदमाकर' न ऐहै काम सरसुती, साँचहू कलिंदी कान करन न पावैगी। लैहै छीन अंबर दिगंबर के जोरावरी, बैल पै चढ़ाय फेरि सैल पे चढ़ावैगी। मुंडन के माल की भुजंगन के जाल की, सुगंगा गजखाल की खिलत पहिरावेगी।