पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/८७

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व्याजस्तुति ८३ एक महापातकी धगात की दसा बिलोकि, देत यो उराहनो सु ाठहूँ पहर है। मीच समय तेरो उत श्राप गयो कंठ इत, व्यापि गयो कंठ कालकूट सो जहर है। आप चढ़ी सीस मोहि दीन्हीं बकसीस, औहजार सीसवारे की लगाई अटहर है। मोहिं कर नंगा अंग अंगन भुजंगा, बाँधो एरी मेरी गंगा तेरी अद्भुत लहर है ॥२॥ बरवा-कुजनपाल गुनबर्जित अकुल अनाथ । कहहु कृपानिधि राउर कस गुननाथ ॥ सूचना-पद्माकरकृत 'गंगालहरी' में इस अलंकार के बहुत उत्तम उदाहरण हैं । विनयपत्रिका में "बाबरो रावरो नाह भवानी वाला पद इसी अलंकार में कहा गया है। दूसरी दो०-कीन्हें पर अस्तुति जहाँ पर प्रस्तुति दरसाय । ताहू को व्याजस्तुतै कहैं कबिन के राय ॥ यथा-जासु दूत बल बरनि न जाई । तेहि आये पुर कौन भलाई ॥ यहाँ दूत की बड़ाई से दूत के मालिक (रामचंद्र) की बड़ाई झलकती है। या बूंदाबन विपिन में बड़ भागी मम कान । जिन मुरली की तान सुनि हिय हरषित अँग आन ॥ यहाँ कानों की बड़ाई से मुरली की अत्यंत बड़ाई प्रकट होती है।