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अहङ्कार

पापनाशी-क्या, क्या क्या तुम अनन्त जीवन के आकांक्षा नहीं हो? लेकिन तुम तो तपस्वियों की भांति वन्यकुटी में रहते हो?

'हाँ, ऐसा जान पड़ता है।'

'क्या मैं तुम्हें नग्न और विरत नहीं देखता?

'हाँ, ऐसा जान पड़ता है।'

'क्या तुम कन्ध मूल नहीं खाते और इच्छाओं का दमन नहीं करते?

'हाँ, ऐसा जान पड़ता है।'

'क्या तुमने संसार के माया मोह को नहीं त्याग दिया है?'

'हाँ, ऐसा जान पड़ता है, मैंने उन मिथ्या वस्तुओं को त्याग दिया है जिन पर संसार के प्राणी जान देते हैं।' तब तुम भेरी भांति एकान्तसेवी, त्यागी और शुद्धाचरण हो। किन्तु मेरी भाँति ईश्वर की भक्ति और अनन्त सुख की अभिलाषा से यह व्रत नहीं धारण किया है। अगर तुम्हे प्रभु मसीह पर विश्वास नहीं है तो तुम क्यों सात्विक बने हुये हो? अगर तुम्हें स्वर्ग के अनन्त सुख की अभिलाषा नहीं है तो संसार के पदार्थों को क्यों नहीं भोगते?

वृद्ध पुरुष ने गम्भीर भाव से जवाब दिया-मित्र, मैंने संसार को उत्तम वस्तुओं का त्याग नहीं मिला है और मुझे इसका गर्व है कि मैंने जो जीवनपथ ग्रहण किया है वह सामान्यतः सन्तोषजनक है, यद्यपि यथार्थ तो यह है कि संसार में उत्तम या निष्ट, भले या बुरे जीवन का भेद ही मिथ्या है। कोई वस्तु स्वतः भली या बुरी सत्य या असत्य, हानिकर या लाभकार, सुखमय या दुखमय नहीं होती। हमारा विचार ही वस्तुओं को इन गंगों से श्रीभूषित करता है, उसी भाँति-जैसे नमक भोजन को स्वाद प्रदान करता है।