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अहंङ्कार

तीन कारण होते हैं। या तो वह वस्तु नहीं मिलती जिसकी उन्हें अभिलाषा होती है, अथवा उसे पाकर उन्हें उसके हाथ से निकल जाने का भय होता है, अथवा जिस चीज़ को वह बुरा समझते हैं उसका उन्हें सहन करना पड़ता है। इन विचारों को चित्त से निकाल दो और सारे दुःख आप ही आप शांत हो जावेंगे। इन्हीं कारणों से मैंने निश्चय किया कि अन से किसी वस्तु की अभिलाषा न करूँगा। संसार के श्रेष्ठ पदार्थों का परित्याग कर दूँगा और उसी भारतीय योगी की भाँति मौन और निश्चल रहूँगा।

पापनाशी ने इस कथन को ध्यान से सुना और तब बोला—

टिमो, मैं स्वीकार करता हूॅ कि तुम्हारा कथन बिलकुल अर्थ- शुन्य नहीं है। संसार की धन-सम्पति को तुच्छ समझना बुद्धि- मानों का काम है। लेकिन अपने अनन्त सुख की उपेक्षा करना परले सिरे की नादानी है। इससे ईश्वर के क्रोध की आशंका है। मुझे तुम्हारे अज्ञान पर बड़ा दुःख है और मैं सत्य का उपदेश करूँगा जिसमें तुमको उसके अस्तिस्त्र का विश्वास हो जाय और तुम आज्ञाकारी बालक के समान उसकी आज्ञा पालन करो।

टिमालीन ने बात काटकर कहा—

नहीं नहीं, मेरे सिर पर अपने धर्म सिद्धान्तों का बोझ मत लादो। इस मूल मे न पड़ो कि तुम मुझे अपने विचारों के अनुकूल बना सकोगे। यह तर्क-वितर्क सब मिथ्या है। कोई मत न रखना ही मेरा मत है। किसी सम्प्रदाय में न होना ही मेरा सम्प्रदाय है। मुझे कोई दुःख नहीं, इसलिये कि मुझे किसी वस्तु की ममता नहीं। अपनी राह जाओ, और मुझे इम उदासीनावस्था ने निकालने की चेष्टा न करो। मैंने बहुत कष्ट झेले हैं और यह दशा ठण्डे जल के स्नान की भाँति सुखकर प्रतीत हो रही है।