पृष्ठ:अहिंसा Ahimsa, by M. K. Gandhi.pdf/४८

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अधिसा तिर्णयके दवावसे सुश्ने ठाकुर साहब और उनके सलाहकारसे अब यह अपील करते हुए

तत्तिक भी संकोच नहीं होता कि राजकोटकी प्रजाकी आज्ञाओंकों पूरी करके ने उसे श्ान्त करें और उसकी तमाम आशंकाओंको दूर कर दें। हरिजन सेवक

२० सई, १९३९

यहदियोंका प्रश्न क््यइश फ्रांटियरके मैनेजिंग एंडिटरने कृपाकर भुझे मा्चके अंककी एक प्रति भेजकर

यह प्रार्थना की है कि मत जर्सी और फिलस्तीनके यहूवियोंपर जो लेख लिखा था, उसके उक्त पत्रर्म प्रकाशित जयाबका मुझे भुगतान करना चाहिये। जवाब बड़ी योग्यताके साथ लिखा गया हैँ । 'हरिजनर्से अगर जगह होती तो में सारा ही यहाँ उद्धुत कर देता । से यह कहूँगा कि मेंने बहु लेख आलोचकके झपमें महीं लिखा था। मेंने तो उसे यहूदी सित्रों तथा पश्र-लेखकोंकी जरूरी प्रार्थनापर लिखा भा। मेंने जब लिखनेका निशमरवय कर लिया, तो फिर में उसे किसी दूसरे तरीकेसे नहीं लिख सकता था । पर जब मेने यहु लेख लिखा तब यह आशा नहीं की थी कि बहुदी तुरंत मेरे सतके हो जायेंगे । क्षगर एक भी यहुदी पूरी तरह कायल हो गया हो और उसका सत बवल गया हो, तो मुझे संतीष सात लेना चाहिये । भें मेने यह फेस केवल आजके लिए छिखा था। मेंइस बातको विश्वासके साथ कहता

हैं फिर भले ही यहू मेरी आत्स-परशंता समझो जाय-नेरीं भृत्शुफे बाद सेरे कुछ लेख जीमित रह जायेंगे, और जिन उद्देश्योंसे थेछिखे गये हैं,उनकी उनसे सेवा ही होगी। सुझे इसमें कोई

मिराशा नहीं दीखती कि मेरे छेसने, मेरी जातकारीमें, एक भी यहुदीका सत परिवर्तन नहीं किया ।

अपने फेखके जवाबकों एकसे अधिक बार पढ़नेके बाद, में यह जरूर फहुँगा कि मे

क्षपने देखे जो राय जाहिएकी प्री, पउसे धवलनेकी में कोई नजह नहीं बेखता । बहुत सुभः किनेहै, जैसा कि लेसकर्त कहा है श्फ्रछ