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अहिंसा बनाम हिंसा

एक सप्ताह पहले मैंने राजकोटके सवालको छोड़ा था वहाँसे मुझे फिर उसपर विचार करना चाहिए। सिद्धान्तरुपसे यदि किसी एक भी व्यक्तिमें अहिंसाका पर्याप्त विकास हो गया, तो वह अपने क्षेत्रमें हिंसाका भले ही वह बहुत व्यापक और उग्ररूपमें हो—मुकाबला करनेके साधनोंको ढूंढ सकता है। मैंने बारबार अपनी अपूर्णता स्वीकार की है। मैं पूर्ण अहिंसाका मिसाल नहीं हूँ। मैं तो अभी विकास कर रहा हूँ। अहिंसाका जितना विकास मुझमें अभीतक हुआ है, अबतककी उत्पन्न परिस्थितियोंका मुकाबला करनेके लिए वह काफी पाया गयाहै। लेकिन आज चारों ओर हिंसामय वातावरणका मुकाबला करनेके लिए मैं अपनेको असहाय अनुभव करता हूँ। राजकोट संबंधी मेरे वक्तव्यपर स्टेट्समैनमें एक बहुत चुभता हुआ लेख निकला था। संपादकने उसमें बताया था कि अंग्रेज लोगोंने कभी हमारे आंदोलनको सच्चा सत्याग्रह नहीं समझा। लेकिन व्यवहार-कुशल होनेकी वजहसे उन्होंने इस झूठी कल्पनाको जारी रहने दिया, हालाँकि वे जानते थे कि यह भी एक हिंसात्मक विद्रोह था। यह प्रत्यक्षरुपसे हिंसात्मक इसलिए नहीं हो सका, क्योंकि विद्रोहियोंके पास हथियार नहीं थे। मैं अपनी याददाश्तसे ही 'स्टेट्ससमैनसे यह दे रहा हूँ। जब मैंने यह लेख पढ़ा मैंने महसूस किया कि इस दलीलमें वजन है। उन दिनोंकी घटनाओंकों जैसा मैं देखता था उस तरह यद्यपि उस आंदोलनकों विशुद्ध अहिंसात्मक संघर्ष मानता था, फिर भी इसमें संदेह नहीं कि सत्याग्रहियोंमें हिंसा अवश्य मौजूद थी। मुझे यह भी स्वीकार करना चाहिए कि अगर मुझमें अहिंसाका पूर्ण भाग होता, तो मैं इससे थोड़ा-्सा विचलित होनेको जोरोंसे महसूस करता और मेरी यह भावुकता अहिंसासें किसी तरहकी मिलावटके बरखिलाफ विद्रोह कर बैठती।

मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदुओं और मुसलमानोंने एक साथ मिलकर सत्याग्रह करनेमें मेरी आँखोंपर पट्टी बाँध दी और मैं अहिंसाको नहीं देख सका, जो बहुतसे लोगोंके दिलोंमें दुबककर बैठी थी। अंग्रेज लोग बड़े कुशल राजनीतिज्ञ शासक हैं। वे तो सही रास्ता पसंद करते हैं, जिसमें कम से कम संघर्ष हो। उन्होंने जब देखा कि काँग्रेस जैसी बड़ी संस्थाकों डरा-धमकाककर कुचलनेकी अपेक्षा उससे समझौता कर लेना ज्यादा फायदेमंद है, तब वे वहाँतक झुक गये जहाँतक झुकना जरूरी समझा। मेरी अपनी यह धारणा है कि हमारा पिछला संघर्ष क्रियासे प्रधानतः अहिंसात्मक था। भविष्यके इतिहास-लेखक भी इसे इसी रूपसें ग्रहण करेंगे। लेकिन सत्य और अहिंसाके शोधकके नाते मुझे यदि अहिंसा हृदयमें नहीं है, तो सिर्फ क्रियामें देखकर संतोष नहीं कर लेना चाहिए। पहाड़की चोटीपरसे मुझे यह घोषणा करनी चाहिए कि उन दिनोंकी अहिंसा उस अहिंसासे बहुत नीचे थी, जिसका कि मैं प्रायः वर्णन करता रहा हूँ।

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