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आशभ्रुख

अर्दिसाफा तीसरा खंड एम पाठकोंके सम्मुख उपस्थित कर रहे हैं।

मानव जीवनका कोई पद्ष, कोई अंश ऐसा नहीं हेजिसे महात्माजीने अहिंयाकी इृश्टिसे ग देखा हो । जीवनकी सभी समस्याओंका सुछुझाब उन्होंने अ्हिसासे ही किया था।। इन छेखोंमें उन्होंने अमेक कठिनाइयांपर इसी दृष्टिसे पिचार किया है। देशभरतसे सत्नी-पुरुप उनके पास पत्र लिखते थे ओर घनसे परामशी करते थे और हरिजञन हारा वे उनकी बाठिनाइयोंका उत्तर दिया करते भरे ।

भद्ात्माजीकी अहिसाकी भावना जेसा प्रायः सभी जानते हैं,देखनेमें अव्यावह।रिक और आदर्श स्वरूप समझी जाती थी । लोग समझते थे कि पढ़ने और सुननेमें घह भल्ती छगती है किन्तु जब प्तिदिनकी घटनाओंमें

उसका उपयोग करना पड़ता था तब लोग समझते थे कि उसका प्रयोग करना

असंभव है. । किन्तु धात ऐसी नहीं ६ । इन लेखोंकों पढ़नेसे ज्ञात होता है कि अहिसाकी भावना जत्पन्न करनके छिये विशेष मनःस्थितिकी आवश्यकता है

ओऔर अब वह मनःस्थिति उत्पन्त होगयी तब सभी कठिनाइयोंका सामना किया जा सकता हेऔर उनपर महुष्य विजय आप्त कर सकता है । यह मनःस्थिति

फोई असंभव बात नहीं हैयही इन लेखोंसे स्पष्ट होता है' । मजुष्यको अपने आचरणकी धारा घदल देनी होगी। निमस कोटिफे बिचारोंकों मनमें दबाये हुए

बासनाओंको ढृदयमें रखे हुए, अनाचारका पोषण करते हुए अ्िसाकी बात

करना बेकारहै । अनेक संवाद-दाताओंने शंका की है. फि अमुक बातमें अहिंसा को सफछता नहीं गिर सकती, अथवा अमुक स्थछूपर अध्विंसा अव्योवहारिक

है । महात्माजीका कहना है. कि इस अकार सोचना अपनी दुर्बक्षताओंको न देखना है । दु्बंछताओंकी साथ रखकर अहिंसाकी भावना हम नहीं जाग्रत कर

सकते । उनका श्पष्ट कहना है कि जो छोग बुराइयॉंका सामना अध्विसासे फरमेमें असमर्थ हैं धह हिंसासे करें, किंतु यह औपधि क्षणिक ही पो सकती

है । पूर्णहूपसे शुक्ृत्योंफे विनाशका एक मात्र उपाय अहिसा ही है.। ब्यक्तिगत जीवनमें ही पहीं। राष्ट्रों ओर जातियोंफे छिये भी उन्होंने अहिसाको ही सर्वश्रेष्ठ प्पाव साना है। उसका यह विचार उस समय भी

नहीं डिया जब हिटलरकी तोपें भूरोपकी अनेक जातिभोंको धराश्ायी फर रही भा के