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अहिसा'

करे, प्रतिज्ञाकी दृष्टिसि इसका इतना महत्त्व नही हेजितना इस बात का कि आप कर सकते है । कुछ भी हो, आज तो आर्थिक ढंगके आन्दोलनकी छूट है । “ये दोनों सवाल तो प्रतिज्ञाकेइस पहलूसे पैदाहोते हैकि क्या-क्या चही किया जा सकता । एक तीसरा सवाल इस बारेमें खड़ा होता हैकि क्या-क्या करना जरूरी है । बेशक यह आवश्यक है

कि जो कोई प्रतिज्ञा छेउरो समाजकी अर्थ-व्यवस्था एक जगह केन्द्रित नकरनेके उसूलमें अपना क्रियात्मक विद्वास जाहिर करनेको तैथार रहना चाहिए । इस विश्वासका असली रूप क्या हो यह भछे ही कालू-प्रवाहके साथ तय हो सकता है । प्रतिज्ञा लेनेब्राछेको सिर्फ चरखेकेबारेमें इतना

विश्वास होना चाहिए कि कपड़ेका उद्योग थोड़े लोगोंके हाथोंसे पूरी तरह निकाककर भभिक-सेअधिक लोगोंके हाथोंभें दिया जा सकता है, और इसके लिए कोशिश भी होनी 'चाहिए । जैने आलस्य और दूसरे कारणोंसे होनेवाली व्यवहारकी जनियमितताओोंका बिलकुल जिक्र नहीं किया है । ऐसा तो सभी प्रतिज्ञाओं और श्रद्धाओंके बारेमें होता है । सिर्फ ऐसी गल-

तिथोंको दूर करनेकी इच्छा जरूर होनी चाहिए ।

“में नहीं जानता कि प्रतिज्ञाका यह अर्थ सही हैया नहीं, ओर आपको स्वीकार हो सकता हैया नहीं । मुझे यह भी पता नहीं कि मेरे समाजवादी साथियोंकों यह पसन्द आयेगा या नही । शायद आपकी राय जल्दी मालूम होता देशके लिए अच्छा होगा। मगर पहले ही इतनी देर

हो चुकी हैकि स्वाधीनता-दिवसके लिए तो यह राय काम नहीं आ सकेगी ।”

जो बात भे कई बार कह चुका हैंउसे दोहराने की जरूरत तो नहीं है,मगर बह बात यह हैकि प्रतिशाका कानूनी और अधिकारपूर्ण अर्थ तो कार्येशसिति ही बता सकती है । भेरे बताये

हुए अर्थका महत्त्व तो वहीं तक हैजहाँतक कि छोगोंकी मान्य है । संक्षेपमम मेंइतना कह सकता हूँकि डॉक्टर छोहिपाका लगाया हुआ अर्थ मंजूर कर लेलेमें मुझे कोई आपत्ति नहीं है। कांग्रेसकी फोशिशका अन्तर कुछ भी परिणाम निकले, प्रतिशाके

बारेमें जो चर्चा हो रही हैउससे जनताको अच्छी राजनीतिक शिक्षा सिल रही है । और वेशमें अलूग-अलग घिचारके लोगोंकी राय स्पष्ठ होती जा रही है ।

हालाँकि भोरे तौर पर डॉक्टर छोहिपासे मेरी राय मिलती हैफिर भी यहु भष्छा होगा कि प्रतिज्ञाका अपना अर्थ मेंअपनीहीभाषामें बता व्‌"। प्रतिशा सारी बातें सहीं आ गयी | इससे तो यही माछूम होता हैकि कार्मंससिति कहाँ लक मेरे साथ जा सकती थी । अगर वेशका वृष्टिकोण से अपना-सा बना सका तो आायंदा समाज-व्यवस्थाकी बुनियाव प्यादातर घरणे और

उससे निक्लनेबाले सारे फलिता्थोपर खड़ी की जायेगी । उससे वे शव चौज़ें धासिल होंगीं जितसे वेहातियोंकी भ्ताई हो । लेखक जित उचद्योगोंका जिक्र किया हैंजबतफक बे देहातों और

वेहाती जीवनका गला न घोटने लगें तबतक उन उ्यीयोंका स्थात भी रहेगा। मेरी कत्पतामें

यहु जकर हैकि पेहातकी दत्तकारियोंकि साथ-साथ भ्रिजली, जहाज बचाना, कछें तैयारकरना और इसो तरहफे दूसरे उद्योग भरी रहेंगे। सगर कौत भुछ़्य और कौन गौण रहूँ;इसका कम उलठ

जायंगा। आजतक बड़े-बड़े कारजानोंकी गोजना इस तरह चलती रही है जिससे भाँत्रोंऔर है०१ '