पृष्ठ:अहिल्याबाई होलकर.djvu/१०३

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धन को दान और धर्म में ही व्यय करूँगी। कुछ काल पश्चात राघोबा दादा ने लोभ के वश होकर बाई से कहला भेजा कि इस समय मुझको कुछ द्रव्य की अत्यंत आवश्यकता है, इस कारण आप मुझको कुछ रुपए तुरंत भेज दे। बाई ने, जो कि दादा साहब की प्रकृति को भली भाँति जान गई थी, उत्तर में कहला भेजा कि मैंने अपने संपूर्ण मंचित धन पर तुलसी दल रख भगवान् को अर्पण कर दिया है। अब उस धन में से एक कौड़ी भी लेने का मुझे अधिकार नहीं रहा। तथापि आप ब्राह्मण हैं; यदि दान लेना चाहे तो प्रसन्नतापूर्वक में अपको संपूर्ण धन गंगाजल और अक्षत लेकर मंकल्प करने को उद्यत हूँ। इस उत्तर को सुनकर दादा साहब अपने आपे से बाहर हो गए और उन्होंने भाई को कहला भेजा कि मैं दान लेनेवाला प्रतिमाही ब्राह्मण नहीं हूँ। या तो आप रुपए भेजे अथवा युद्ध के लिये तैयार रहें। इस प्रस्ताव को सुन बाई ने नि:शक हो पुनः कहला भेजा कि युद्ध में प्राण जायें हो जायें, परंतु प्राण रहते हुए संकल्पित घन मैं आपको यों न उठाने दूँगी। इस उत्तर को सुनकर दादा साहब ने बड़े समारोह के साथ बाई पर चढ़ाई कर दी। जब बाई को ज्ञात हुआ, तब वे भी वीर भेष धारण कर अस्त्र शस्त्र ले और अपने साथ पाँच नौ स्त्रियों को लेकर रणक्षेत्र में उपस्थित हो गई। इसका तात्पर्य यह था कि धन-लोलुप राघोबा दादा ने धन लेने के लोभ से ही अपनी सेना को लड़ने के लिये उत्तेजित किया है, परंतु वीरगण स्त्रियों पर कभी शस्त्रे नहीं चलावेंगे और न राघोबा दादा को स्त्रियों पर शस्त्र उठाने का