पृष्ठ:अहिल्याबाई होलकर.djvu/११२

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ग्यारहवाँ अध्याय ।

अहिल्याबाई का धार्मिक जीवन ।

अनित्याणि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः ।

नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसंग्रहः ॥१॥ (चाणक्य)

भावार्थ— यह पंचभूत शरीर अनित्य है, वैभव सदा नहीं रहता, मृत्यु सदा निकट विराजमान है। इस कारण धर्मसंग्रह अवश्य करना चाहिए।

भगवान सूर्य नारायण जब अस्ताचल पर्वत के उस पार हो जाते हैं, तब उनकी आरक्त प्रभा अनुरागकारक दिखाई देती है; और वह थोड़े ही काल रहती है। परंतु प्रकाश सदा ही बना रहता है। उसमें किसी प्रकार के त्रुटी नहीं होने पाती। इसी प्रकार अहिल्याबाई का स्वर्गवास तो हो गया, परंतु उनकी तेजोमयी प्रभा सूर्य के समान अल्पावकाश रहकर धर्मरूपी जीवन का प्रकाश सदा के लिये स्थायी हो गया। उनका शरीर चला गया परंतु उनकी कीर्ति अजर और अमर हो गई। उनका संपूर्ण जीवन धर्ममय होने से उनकी कीर्ति आम्र वृक्ष के सदृश विस्तीर्ण रूप से चहुँ ओर फैल गई। उस विशाल वृक्ष की विस्तृत शीतल छाया के नीचे उनकी पुत्रवत् प्रजा आनंद में बैठ मग्न हो सुख भोग रही थी। वे लोग धन्य हैं जिन्होंने उस वृक्ष के मधुर फल यथेच्छ रुप से चखे थे। उस सघन वृक्ष की छाया