पृष्ठ:अहिल्याबाई होलकर.djvu/१२८

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में कितना परिश्रम और द्रव्य व्यय किया होगा, इसका अनुमान पाठक स्वयं कर लें और तब विचार करें कि एक अबला स्त्री में इतनी शक्ति और बुद्धि का होना क्या ईश्वरीय शक्ति नहीं कहा जा सकता ? क्या वह आदरणीय नहीं हो सकता ? बाई के दान-धर्म की कल्पना विश्वकुटुंब के समान है जिसका वर्णन हम पीछे के भागों में कर चुके हैं । अर्थात् इनकी भूतदया का भाग बन के पशुओं को, मकानों और वृक्षों पर आश्रय पानेवाले पक्षियों को, और जल में रहनेवाले मच्छ कच्छ इत्यादि जीवों को भी मिलता था । इस वर्णन को पढ़ कर हमें महाकवि कालिदास का वाक्य स्मरण हो आता है । आप ने लिखा है :-

मनुप्रभृतिभिर्मान्यैर्भुक्ता यद्यपि राजभि: ।

तथाप्यनन्यपूर्वेव तस्मिन्नासीद्वसुंधरा ।। १ ।।

अनुवाद—भोगी यद्यपि भूमि है, मन्वादिक की एह ।

तदपि मानती प्रथम पति, इनको करिके नेह ।

इस प्रकार की विलक्षण धर्म की कीर्ति सुन अन्य राज्यों की दानशीला स्त्रियों में भी आहिल्याबाई के धर्म मार्ग का अनुकरण करने का दृढ़ संकल्प किया था । बाई के सत्कार्यों का अनुकरण करनेवाली जगतप्रसिद्ध बायजा बाई सिंधिया थीं जिन्होंने धर्मशाला, मंदिर आदि स्थापित कर अपने कोमल और भक्तिमय हृदय का परिचय दिया था । उनमें से कुछ आज भी वर्तमान हैं । इनके सद्गुणों और कीर्ति की ध्वजा आदरणीय स्त्रियों के मध्य फहरा रही है । इन्होंने भी अभित धन धार्मिक कृत्यों और सत्कार्यों में व्यय किया था ।