अहिल्याबाई के चरित्रों के अवलोकन मात्र से ज्ञात होता है कि जिस प्रकार उनका राजत्व काल कौटुंबिक दुःखों से उलझे हुए समय में प्रारंभ हुआ था, उसी प्रकार उनके अंतिम समय में भी वह दुःखों से पूरी तरह भरा हुआ था । वस्तुतः उन्होंने अपना तन, मन और धन ईश्वर-पूजन, अर्चन और दान-धर्म इत्यादि में अर्पण करके अपने जीवन को हिमालय के बर्फ के समान स्वच्छ और गंगाजल के समान पवित्र बना रखा था और वे अपने धर्म से भी च्युत नहीं हुई थीं । इन सब बातों पर दृष्टि डालने से तो यही प्रतीत होता है कि उनका चरित्र किसी तपस्विनी के समान उन्नत था। परंतु इसमें कुछ भी संदेह नहीं कि उनका संसारी जीवन अत्यत हृदयद्रावक दुःखों में व्यतीत हुआ था।
बाई का जन्म एक सामान्य पुरुष के यहां होने के कारण माता पिता के स्वाभाविक वात्सल्य के अतिरिक्त और अधिक लाड़ चाव और सुख की प्राप्ति की उनके लिये क्या संभावना थी ? परंतु दैववश अपने पूर्व सुकृत के बल से उन्हें मल्हारराव की पुत्र वधू बनने का सौभाग्य प्राप्त हो गया था, किंतु अपने संचित कर्मों के योग से उन का सौभाग्यकुसुम छोटी ही अवस्था में कुम्हला गया था। विधवा होने के उपरांत वे अपने पुत्र और कन्या ही के मुख देख अपनी वैधव्य-यातनाओं