पृष्ठ:अहिल्याबाई होलकर.djvu/१४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
( १३१ )


नाथ ! बतलाओ अब मैं कहाँ जाऊँ, किसको अपने दुःख की कहानी सुनाऊँ, और किसकी शरण में जाकर आश्रय लूँ? इस संसार में केवल दुखिया माता को छोड़ अब मेरा कोई नहीं है । नाथ, स्त्री का पति ही परम आराध्य देव और आधार गति तथा मुक्ति का कारण है । प्राणेश ! अब मैं कहाँ जाकर ठहरूँ? क्या दुखिया माता के यहाँ? वहाँ कितने दिवस? सूर्य बिना नलिनी की जैसी दशा होती है, तुम उसे खूब जानते हो । कुमुदनी को सुधाकर ही आनंद देनेवाला है, लता का केवल तरु ही आधार है । उसी प्रकार स्त्री का आधार केवल एक मात्र पति ही है । नाथ बतलाओ, मैं पतिविहीना कहाँ जाऊँ, और किधर ठहरूँ? अंत को मुक्ताबाई अत्यंत प्रेमवश हो सती होने के लिये उत्कंठित हो गई और अपनी माता से जो कि वहाँ पर उपस्थित थीं, पति के साथ सती होने की आज्ञा माँगने लगी । अपनी एक मात्र पुत्री को इस संकल्प से निवृत्त कराने के लिये अहिल्याबाई ने यथासाध्य प्रयत्न किये । परंतु सब निष्फल जान दुःख से दुःखित हो और प्रेम के कारण मोहवश होकर बार बार अपनी पुत्री से विनय की कि मुक्ता ! अब अकेली तू ही मेरे इस बुढ़ापे की आधार है । बिना तेरे क्षणभर इस दुःखमय जगत में मेरा निर्वाह न होगा । हा दैव ! अब मेरे जीवन का एक भी आधार नहीं है, जिसके सहारे यह प्राण टिक सकें। बेटी मुक्ता, तू इस संकल्प को, मेरी दुःखमय दशा को देख, छोड़ दे। यदि मेरी ओर तेरी सचमुच कुछ भी भक्ति है तो तू मुझे इस भवसागर रूपी संसार में अकेली, निराश्रित, जो कि दुखःमय हो रही हूँ, मत छोड़ जा ।