बाई नर्मदा के तटपर उपस्थित हुईं । जीव मात्र पर दया और रक्षा करनेवाली पुण्यशीला बाई अपनी एकमात्र जीवनावलंबन प्रतिमा को विसर्जित करने के हेतु नर्मदा के घाट पर पहुँची । शव के लिए चंदन, अगर, कपूर आदि सुगंधित वस्तुओं से चिता बनाई गई और पातिव्रत्य पर आरूढ़ रहनेवाली सत्यशीला मुक्ताबाई विधिपूर्वक अपने प्राणनाथ के मस्तक को अपनी गोद में लेकर हर्षित मन और गदगद हृदय से चिता पर विराजमान हुईं । पश्चात् चिता का अग्नि संस्कार कराया गया । घृत, कपूर आदि के स्पर्श से शीघ्र ही देखते देखते चहुँ ओर से वह चिता धकधकाती और लपलपाती हुई अग्नि की ज्वाला से तुरंत परिपूर्ण हो गई और मुक्ताबाई के कोमल अंग को भस्मीभूत करने लगी । उस समय,चारों ओर से शंख, घंटा, भेरी, नरसिंहा आदि के नाद से संपूर्ण आकाश गूंज उठा । परंतु गगन को भी भेद करता हुआ बाई का हृदयविदारक विलाप दर्शकों को विकल और विह्वल कर रहा था । बाई अपनी पुत्री के मोह के वशीभूत होकर बार बार चिता में कूदकर तुरंत भस्म होने का प्रयत्न करती थीं परंतु दोनों ओर से दो ब्राह्मण उनकी भुजाओं को दृढ़ता से बलपूर्वक थामे हुए थे । जब चिता केवल अग्नि की ढेरी सी हो चुकी, उस समय बाई पृथ्वी पर मूर्छित हो गिर पड़ीं । अंत को थोड़े समय के उपरांत जब उनको सुध आई तब भी उनके चित्त की भ्रांति और विकलता ज्यों की त्यों बनी रही । सेवकगण और इतर लोग उनको बड़े कष्ट से राजभवन में लाये, परंतु उनके शोक में कुछ भी न्यूनता न हुई ।
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