बाई शोकातुर हो तीन दिन तक बिना अन्न जल के भग्न हृदय से बिलखतीं और करुणा करती रही थीं । अनेक दास, दासी, राजकर्मचारी और ब्राह्मण आदि उन्हें अनेक प्रकार से धैर्य दिलाते और शान्त करते रहे । परंतु बाई का दुःख से पूर्ण और संतप्त हृदय किसी प्रकार शांत ही न होता था । अंत को कई दिनों के उपरांत उनका चित्त स्वयं क्रम से शांत हो चला था; और जब शांति हुई तब बाई ने अपने जामाता और पुत्री के स्मरणार्थ एक उत्तम और रमणीय छत्री बनवाई थी जिसके शिल्प और नैपुण्य को देख आज दिन भी बड़े बड़े शिल्प-विद्या निपुण चकित और विस्मित होते हैं।
इस संबंध में मालकम साहब ने लिखा है कि "अहिल्याबाई के अंत समय में एक अत्यंत शोकप्रद
घटना हुई थी जिसका उल्लेख किये बिना नहीं रहा जाता । बाई के पुत्र की शोकदायक मृत्यु के पश्चात् उनकी एक पुत्री मुक्ताबाई नाम की थी जिसका विवाह हो गया था और जिसे एक पुत्र भी हो चुका था। परंतु जब वह लड़का (नत्थू ) सोलह वर्ष की अवस्था को प्राप्त हुआ, तब वह अचानक महेश्वर स्थान पर कालवलित हो गया और पुत्रशोक के कारण मुक्ताबाई के पति यशवंतराव भी एक वर्ष पश्चात् परलोकवासी हो गए, तब मुक्ताबाई ने भी अपना विचार पति के साथ सती होने का दरसाया । धर्मशीला अहिल्याबाई ने पुत्री के सती होने के विचार को जान, माता और राजरानी दोनों अधिकारों से समझा बुझाकर उसको अचल संकल्प से विचलित करना चाहा था ।