श्रवण, मनन और नामस्मरण ही था । बाई परमार्थ के कार्यों में अधिक उद्यत रहती थीं । जब उनकी अवस्था २० वर्ष की थी तब ही उनके पति का स्वर्गवास हो गया था । उस दुःख की निवृत्ति नहीं होने पाई थी त्यों ही पुत्रशोक भी प्राप्त हुआ जिसके कारण उनका कोमल अंतःकरण और भग्न हो गया । विधवा होने के उपरांत इन्होंने कभी भी रंगीन वस्त्र धारण नहीं किए । अलंकारों में एक माला के अतिरिक्त और कोई भी रत्नजड़ित भूषण वे धारण नहीं करती थी। सुख, चैन और सदा लुभानेवाली सब प्रकार की उपस्थित सामग्रियों से मन को हटाकर उसे परमार्थ पर आरूढ़ करना कोई साधारण बात नहीं थी । उनको अपने मान अभिमान, तथा ठकुरसुहाती बातों से घृणा थी । एक समय एक ब्राह्मण ने बाई के संपूर्ण सदगुणों का ब्योरा लिख कर एक पुस्तक बनाई और उनको भेंट की । बाई ने भी उस पुस्तक को बड़ी सावधानी और चित्त से सुना परंतु ऐसा कह कर कि "मुझ सरीखी पापिनी दूसरी होना दुर्लभ है, मुझमें ये सब प्रशंसनीय गुण नहीं हैं।" उस पुस्तक को नर्मदा जी में फेंकवा दिया और इस ब्राह्मण को शीघ्र विदा कर दिया ।
अहिल्याबाई के जीवन की जितनी घटनाएँ कही जाती हैं वे सब नितांत साधारण और सत्य हैं। उनके विषय में किंचित भी संदेह करने की जगह नहीं है । तथापि बाई का जीवनचरित्र एक बड़ी अद्भुत और आश्चर्यमय वस्तु है। वे स्त्री होकर भी अभिमान से नितांत रहित थीं, धर्मवीर होकर भी वे धर्म का विरोध न करने वाली थीं,