अहिल्याबाई के सद्गुणों और प्रेमपूर्ण वर्ताव को सुनकर दूर दूर से व्यापारी लोग, नाट्यकला के लोग और कई एक हुनर वाले आते थे और अपनी अपनी वस्तु, तथा हुनर दिखला दिखला कर और भाग्यानुसार यथोचित द्रव्य पाकर लौटते थे । पर बाई का यह नियम था कि जो कोई बाहर से आवे उसको भोजन और जाते समय उसकी योग्यतानुसार पुरस्कार उसको दिया जाय । कोई उनकी राजधानी में आया हुआ पथिक विमुख न जाने पाता था । यद्यपि बाई बहुतों को स्वयं अपने हाथ से द्रव्य देती थीं, तथापि कई एक ऐसे भी थे जिनको बाई के दर्शन भी नहीं होने पाते थे । परंतु आया हुआ विमुख न जाने पाता था।
इसी प्रकार जब फंदी अपने साथियों के साथ वहाँ पहुँचा तब कुछ दिनों के ठहरने के उपरांत इसके खेल दिखाने की भी बारी आई । उस दिन भाग्यवशात् बाई स्वयं इसका तमाशा देखने और लावनियाँ सुनने को उपस्थित थीं । जब फंदी अपना खेल दिखा चुका और कई एक उत्तम उत्तम और अनोखी अनोखी लावनियाँ सुना चुका जिनको बाई ने बड़े ध्यानपूर्वक देखा और सुना तब फंदी को बाई ने अपने समक्ष उपस्थित होने की आज्ञा दी । सब ब्योरा सुनकर इनको बाई ने यह उपदेश दिया कि "तुम ब्राह्मण और कवि होकर अपना जीवन और कवित्व इस प्रकार क्यों नष्ट कर रहे हो । इसकी अपेक्षा यदि तुम स्वार्थ और परमार्थ दोनों बनाओ तो तुम्हारा तथा दूसरे लोगों का बड़ा हित हो ।" और उसको उसकी योग्यता के अनुसार द्रव्य दे विदा किया।
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