फंदी के मन पर बाई के दिए हुए उपदेश की तत्काल ही उत्तम परिणाम हुआ । उसी दिन से उसने अपना डफला (एक प्रकार का बाजा जिसपर चमड़ा मढ़ा हुआ रहता है) फोड़ इस तमाशे को तिलांजलि दे दी और वह अपने ग्राम को लौट गया।
संगमनेर ग्राम जिसमें फंदी रहता था वहां पर स्वामी फदी नाम से एक प्रख्यात स्थान था । इस स्थान पर फदी (स्वामी) के स्मरणार्थ वार्षिक उत्सव इस ग्रामवाले बड़े प्रेम और श्रद्धा के साथ मनाया करते थे जिसमें दूर दूर के ग्रामीण आ कर अपना गाना बजाना और क्रीड़ा किया करते थे। इसी प्रकार इस उत्सव का दिवस फिर प्राप्त हुआ । परंतु इस वर्ष फदी न अपनी लावनी और खेल करने का विचार ही त्याग दिया था जिससे ग्रामीण और दूसरे प्रमुख प्रमुख लोगों ने इससे इतना आग्रह और विनय किया कि बेचारा फंदी हाँ के अतिरिक्त और कुछ न कह सका। जब सब लोगों को विदित हो गया कि फंदी आज अपना खेल दिखावेगा और लावनी सुनावेगा तो आदमियों की भीड़ पर भीड़ होने लगी । फंदी ने भी स्वामी जी के स्मरणार्थ इसी दिन के लिये अपना खेल करना तथा लावनी सुनाना निश्चय कर अपना काम प्रारंभ किया। खेल के बीच बीच में इसकी लावनी होती थी जिसके कारण अधिक लोगों का जमाव होते हुए भी शांति रहती थी और लोग इसके नृत्य और कवित्व से मुग्ध हो हो कर प्रेममय हो रहे थे । अकस्मात् उसी दिन अहिल्याबाई की सवारी पूना जाने को उसी