हम पहले अध्याय के अत में कह आए हैं कि मल्हारराव होलकर अपने पुत्र खंडेराव के विवाह के लिये योग्य दुलहिन की खोज कर रहे थे, उन्हें यही चिंता थी कि -
वरयेत कुळजा प्राज्ञो विरूपामपि कन्यकाम् ।।
रूपशीला न नीचस्य विवाह सदृशे कुले ।।।
( चाणक्य )
कन्या वरै कुलीन की यदपि रूप की हान ।।
रूप सील नहिं नीच की, कीजै ब्याह समान ।।
( गिरधरदास )
भावार्थ--बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह उत्तम कुल की कन्या यद्यपि वह रूपवती न हो तो भी वरे किंतु नीच कुल की सुंदरी और रूपवती कन्या हो तो भी उसको वरना नहीं चाहिए, कारण कि विवाह तुल्य कुल में ही विहित है। जब मल्हारराव होलकर का मानको जी शिंदे जैसे सभ्य गृहस्थ का पता चला तब उन्होंने अपने पुत्र खंडेराव का व्याह उनकी एकमात्र कन्या अहिल्याबाई से सन् १७३५ ईसवी में बड़े आनंद और समारोह के साथ कर दिया। जब अहिल्याबाई अपनी ससुराल में लाई गई, तब इनकी सास गौतमाबाई और ससुर मल्हारराव अपनी पुत्रवधू के मिष्ट भाषण, आचार और उनकी धर्मपरायणता को देख अत्यंत प्रसन्न हुए और अहिल्याबाई के प्रति उनका प्रेम नित नूतन बढ़ने लगा । अहिल्याबाई भी इनको प्रसन्न चित्त से और देवतुल्य सास ससुर के अद्वितीय प्रेम के कारण प्रफुल्लित होकर आनंद से सेवा, प्रेम और भक्ति