पृष्ठ:अहिल्याबाई होलकर.djvu/९२

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होता था। सर्व साधारण को यह सुख अपना निज का द्रव्य व्यय करते हुए भी असंभव जान पड़ता था । परंतु धन्य थीं अहिल्याबाई जो अपनी सारी प्रजा को पुत्रवत् मानती थीं और उनके साथ सर्वदा वात्सल्य का भाव रख उनको सत् मार्ग पर चलने के लिये पुत्रभाव से उपदेश करती थीं । उनके राज्य में यदि कोई धनवान होता था तो वे उससे अपनी और अपने राज्य का गौरव समझती थीं, उसकी प्रतिष्ठा बढ़ाने का यत्न करती थीं और उसकी उन्नति पर पूरा पूरा ध्यान रखती थीं । अनुचित रीति से दूसरे के धन को अपने धनभांडार में एकत्र करना अहिल्याबाई बहुत बुरा ही नहीं वरन् एक प्रकार का पाप मानती थीं । उनका सदा यह विचार रहता था कि द्रव्य सदा सब के साथ नहीं रह सकता है, आज कहीं है तो कल कहीं है; और न उसका उपभोग करनेवाला ही सदा अटल रहता है । हाँ यदि मनुष्य अपने नाम की प्रतिष्ठा बढ़ाने और धनसंग्रह करने की अपेक्षा उपकार, दान, धर्म, सदव्यवहार आदि संग्रह करने पर आरूढ़ हो तो वह अनेक जन्मों तक सुखी और भाग्यशाली रह सकता है । दुःखी और सुखी होना मनुष्य के लिये अपने ही हाथ की बात है । जैसे -

यथाकारी यथाचारी तथा भवति ।
साधुकार साधु भवति, पापकारी पापी भवति ।। १ ।।

अर्थात् जो जैसा आचरण तथा कर्म करता है वह वैसा ही कर्म करनेवाला पुण्यात्मा और पाप करने वाला पापी होता है। इसी प्रकार मार्कस औरेलियस का कथन