झोपड़ी में बुड्ढ़ा पुआल पर पड़ा था। उसकी आँखे कुछ बड़ी
हो गई थी, ज्वर से लाल थीं । निवास को देखते ही एक रुग्णा हँसी उसके
मुँह पर दिखाई दी। उसने धीरे से पूछा-बाबूजी, आज फिर...!
नहीं, मैं वाद-विवाद करने नहीं आया हूँ। तुम क्या बीमार हो ? हाँ, बीमार हूँ बाबूजी, और यह आपकी कृपा है ।
मेरी ?
हाँ, उसी दिन से आपकी बाते मेरे सिर में चक्कर काटने लगी हैं । मैं ईश्वर पर विश्वास करने की बात सोचने लगा हूँ । बैठ जाइए, सुनिए ।
निवास बैठ गया था। बुड्ढ़े ने फिर कहना आरम्भ किया--मै
हिन्दु हूँ। कुछ सामान्य पूजा-पाठ का प्रभाव मेरे हृदय पर पड़ा रहा,
जिन्हें मैं बाल्यकाल में अपने घर पर पवों और उत्सवों पर देख चुका
था। मुझे ईश्वर के बारे में कभी कुछ बताया नहीं गया। अच्छा, जाने
दीजिए, वह मेरी लम्बी कहानी है, मेरे जीवन की संसार से झगड़ते
रहने की कथा है। अपनी घोर आवश्यकताओं से लड़ता-झगड़ता मैं
कुली बन कर 'मोरिशस पहुँचा। वहाँ 'कुलसम' से, नीरा की मां से,
मुझसे भेंट हो गई । मेरा उसका ब्याह हो गया। आप हँसिये मत,
कुलियों के लिए वहाँ किसी काजी या पुरोहित की उतनी आवश्यकता
नहीं। हम दोनों को एक दूसरे की आवश्यकता थी। 'कुलसम्' ने मेरा
घर बसाया । पहले वह चाहे जैसी रही, किन्तु मेरे साथ सम्बम्ध होने
के बाद से आजीवन वह एक साध्वी गृहिणी बनी रही। कभी-कभी वह
अपने ढंग पर ईश्वर का विचार करती और मुझे भी इसके लिए प्रेरित
करती; किन्तु मेरे मन में जितना 'कुलसम' के प्रति आकर्षण था, उतना
ही उसके ईश्वर-सम्बन्धी विचारों से विद्रोह । मैं 'कुलसम' के ईश्वर को
तो कदापि नहीं समझ सका । मै पुरुष होने की धारणा से यह तो
सोचता था, कि 'कुलसम' वैसा ही ईश्वर माने, जैसा उसे मैं समझ सकूँ
और वह मेरा ईश्वर हिन्दू हो । क्योंकि मैं सब छोड़ सकता था, लेकिन