सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:आँधी.djvu/३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
आँँधी
३१
 
                  आँँधी

प्रज्ञासारथि रामेश्वर और मालती को गये एक सप्ताह से ऊपर हो गया। अभी तक उस वास्तविक संसार का कोलाहल सुदूर से पाती हुई मधुर संगीत की प्रति वनि क समान मरे कानों म गूज रहा था । मैं अभी तक उस मादकता को उतार न सका था। जीवन म पहले की सी निश्चिता का विराग नहीं न तो यह वे-परवाही रही । मैं सोचने लगा कि अब मैं क्या करू ?

कुछ करने की इच्छा क्यों ? मन के कोने से चुटकी लेते कौन पूछ बैठा। किये बिना तो रहा नहीं जाता। करा भी पाठशाला से क्या मन ऊब चला ? उतने से संतोष नहीं होता। और क्या चाहिए?

यही तो नहीं समझ सका नहीं तो यह प्रश्न ही क्यों करता कि- अब मैं क्या करूँ। मैंने झझला कर कहा। मेरी बातों का उत्तर लेने देनेवाला मुस्करा कर हट गया। मैं चिंता के अधिकार में खूब गया । वह मेरी ही गहराई थी जिसका मुझे आह न लगा | मैं प्रकृतिस्थ हुआ कब जब एक उदास और चालामयी तीव्र दृष्टि मेरी आंखों में घुसने लगी। अपने उस अधिकार में मैंने एक मोति देखी ।

मैं स्वीकार करू गा कि वह लैला थी इस पर इसने की इच्छा हो तो हँस लीजिए किन्तु मैं लैला को पाकर जाने के लिए विकल्प नहीं था क्योंकि लैला जिसको पाने की अभिलाषा करती थी वही उसे न मिला। और परिणाम ठीक मेरी आँखों के सामने था । तब ? मेरी सहानुभूत क्यों जगी । हाँ वह सहानुभूति थी । ला जैसे दीर्घ पथ पर चलनेवाले मुझ पथिक की चिरसगिनी थी।

उस दिन इतना ही विश्वास करके मुझे संतोष हुआ।