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आँँधी
 

आप यही न कहेंगे कि समझ बूझ कर एक बार उचकना चाहिए किन्तु उस एक बार को-उस अचूक अवसर को जानना सहज नहीं। इसीलिए तो मनुष्य को जो सब से बुद्धिमान प्राणी है बार-बार धोखा खाना पड़ता है । उन्नति को उसने विमिन रूपों में अपनी आवश्यकताओं के साथ इतना मिलाया है कि उसे सिद्धात बना लेना पड़ा है कि उनति का बद पतन ही है।

संयम का वन गम्भीर नाद प्रकृति से नहीं सुनते हो। शारीरिक कर्म तो गौण है मुख्य संयम तो मानसिक है। श्रीनाथजी श्राज लैला का यह मन का सयम क्या किसी महानदी की प्रखर धारा के अचल बाध से कम था। मैं तो देखकर अवाक् था। आपको उस समय विचित्र परिस्थिति रही। फिर भी कैसे सब निर्विघ्न समाप्त हो गया। उसे सोचकर तो मैं अब भी चकित हो जाता हूँ क्या वह इस भयानक प्रतिरोध के धक्के को सम्हाल लेगी?

लैला के वक्षस्थल म कितना भीषण अधड़ चल रहा होगा । इसका अनुभव हम लोग नहीं कर सकते ! मैं अब भी इससे भयभीत हो रहा हूँ। प्रज्ञासारथि चुप रह कर धीरे धीरे कहने लगे—मैं तो कल जाऊँगा। यदि तुम्हारी सम्मति हो तो रामेश्वर को भी साथ चलने के लिए कहूँ। बम्बई तक हम लोगों का साथ रहेगा और मालती इस भयावनी छाया से शीघ्र ही दूर हट जायगी | फिर तो सब कुशल ही है।

मेर त्रस्त मन को शरण मिली । मैंने कहा-अच्छी बात है। प्रशासारथि उठ गये । मैं वहीं बैठा रहा और भी बैठा रहता यदि मिन्ना और रंजन की किलकारी और रामेश्वर की हॉट-डपट-मालती की कलछी की खट खट का कोलाहल जोर न पकड़ लेता और कल्लू सामने आकर न खड़ा हो जाता।