पृष्ठ:आँधी.djvu/५१

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दासी


यह खेल किसको दिखा रहे हो बलराज ?-कहते हुए फीरोजा ने युवक की कलाई पकड़ ली। युवक की मुट्ठी मे एक भयानक छुरा चमक रहा था। उसने झझला कर फीरोजा की तरफ देखा । वह खिलखिला कर हँस पड़ी। फिरोजा युवती से अधिक बालिका थी। अल्लडपन चंचलता और हँसी से बनी हुई वह तुर्फ बाला सब ह यों के स्नेह के समीप थी। नीली नसा से जकड़ी हुई बलराज की पुष्ट कलाई उन कोमल उगलियों के बीच मे शिथिल हो गई। उसने कहा-फीरोजा तुम मेरे सुख मे बाधा दे रही हो।

सुख जीने मे है बलराज ! ऐसी हरी भरी दुनिया फूल वेलों से सजे हुए नदियों के सुन्दर किनारे सुनहरा सवेरा चाँँदी की रातें । इन सबो से मुँह मोड़ कर आँँख बन्द कर लेना ! कभी नहीं | सबसे बढ कर तो इसमे हम लोगों की उछल कूद का तमाशा है। मैं तुम्हें मरने न दूगी।

क्यों?

यों ही बेकार मर जाना! वाह ऐसा कभी नहीं हो सकता । जिहून के किनारे तुर्कों से लड़ते हुए मर जाना दूसरी बात थी। तब तो मैं तुम्हारी कब्र बनवाती उस पर फूल चढाती पर इस गजनी नदी के किनारे अपना छुरा अपने कलेजे मे भोक कर मर जाना बचपन भी तो नहीं है।

बलराज ने देखा सुल्तान मसऊद के शिल्पकला प्रेम की गम्भीर प्रतिमा गजनी नदी पर एक कमानीवाला पुल अपनी उदास छाया जलधारा पर डाल रहा है। उस ने कहा - वही तो न जाने क्यों मैं