पृष्ठ:आँधी.djvu/५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४६
आँँधी
 

क्या तुमने कभी अपने जीवन पर विचार किया है ? किस बात का उल्लास है तुम्हें ?

मैं अब गुलामी मे नहीं रह सकूँगी। अहमद जब हिदुस्तान जाने लगा था तभी उसने राजा साहब से कहा था कि मैं एक हजार सोने के सिक्के भेजेगा । भाई तिलक ! तुम उसे लेकर फीरोजा को छोड़ देना और वह हिदुस्तान आना चाहे तो उसे भेज देना | अब वह थैली आती ही होगी। मैं छुटकारा पा जाऊगी और गुलाम ही रहने पर रोने की कौन सी बात है। मर जाने की इतनी जल्दी क्यों ? तुम देख नहीं रहे हो कि तुर्को मे एक नयी लहर आई है । दुनिया ने उनके लिए जैसे छाती खोल दी है । जो आज गुलाम है वही कल सुल्तान हो सकता है । फिर रोना किस बात का जितनी देर हँस सकती हूँ उस समय को रोने में क्यों बिताऊ?

तुम्हारा सुखमय जीवन और भी लम्बा हो फीरोषा कि तु श्राज तुमने जो मुझे मरने से रोक दिया यह अच्छा नहीं किया ।

कहती तो हूँ वेकार न मरो । क्या तुम्हारे मरने के लिए कोई ।

कुछ भी नहीं फीरोला । हमारी धार्मिक भावनाएँ बँटी हुई हैं सामा जिक जीवन दम्भ से और राजनीतिक क्षेत्र कलह और स्वार्थ से जकड़ा हुआ है । शक्तिया हैं पर उनका कोई केन्द्र नहीं । किस पर अभिमान हो किसके लिए प्राण दें?

दुत चले जाओं हिदुस्तान में मरने के लिए कुछ खोजो। मिल ही जायगा जाओ न कही वह तुम्हारी मिल जायें तो किसी झोपड़ी ही में काट लेना । न सही अमीरी किसी तरह तो कटेगी। जितने दिन जीने के हों उन पर भरोसा रखना ।

बलराज । न-जाने क्यों मैं तुम्हें मरने देना नहीं चाहती। वह तुम्हारी राह देखती हुई कहीं जी रही हो तब ! आह ! कभी उसे देख पाती