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पृष्ठ:आँधी.djvu/५८

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५१
दासी
                दासी

५१ यदि एक बार उसे फिर देख पाता पर यह होने का नहीं। निष्ठुर नियमित ! उसकी पवित्रता कपिल हो गई होगी। उसकी उज्ज्वलता परम संसार के काले हाथों ने अपनी छाप लगा दी होगी। तब उससे भेंट करके क्या करूँगा ? क्या करूँगा । अपने कल्पना के स्वर्ण मंदिर का खंडहर देख कर ! कहते-कहते बलराज ने अपने बलिष्ठ पंजों को पथरों से जकड़े हुए मंदिर के प्रांतीय पर दे मारा। वह शब्द एक क्षण में विलीन हो गया। युवक ने भारत आँखों से उस विशाल मंदिर को देखा और वह पागल सा उठ खड़ा हुआ । परिक्रमा के ऊँचे ऊँचे खंभों से धक्के खाता हुआ धूमने लगा।

गर्भ-ग्रह के द्वारपालों पर उसकी दृष्टि पड़ी। वे तेल से चुपड़े हुए काले काले दूत अपने भीषण त्रिशुल से जैसे युवक की ओर संकेत कर रहे थे। वह ठिठका गया । सामने देवास के समीप घृत का अखण्ड दीप जल रहा था । केवल कस्तूरी और अगर से मिश्रित फूलों की दिव्य सुगंध की झकझोर रह रह कर भीतर से आ रही थी। विद्रोही हृदय प्रणत होना नहीं चाहता था परंतु सिर सम्मान से झुक ही गया ।

देव । मैंने अपने जीवन में जान बूझ कर कोई पाप नहीं किया है। मैं किसके लिए क्षमा मांगू । गजनी के सुल्तान की नौकरी यह मेरे वंश की नहीं किन्तु मैं मांगता हूँ एक बार उस अपनी प्रेम प्रतिमा का दर्शन ! कृपा करो। मुझे बचा लो।

प्रार्थना करके युवक ने सिर उठाया ही था कि उसे किसी को अपने पास से खिसकने का सन्देह हुआ । वह घूम कर देखने लगा। एक स्त्री कौशेय वस्त्र पहने हाथ में फूलों से सजी डाली लिए चली जा रही थी। युवक पीछे पीछे चला । परिक्रमा में एक स्थान पर पहुँच कर उसने संदिग्ध स्वर से पुकारा-इरावती । वह स्त्री घूम कर खड़ी हो गई । बलराज अपने दोनों हाथ पसार कर उसे आलिंगन करने के लिए दौड़ा । इरावती ने कहा-ठहरो । बलराज ठिठक कर उसकी गम्भीरता