पृष्ठ:आँधी.djvu/५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५२
आँँधी


मुखाकृति को देखने लगा। उसने पूछा-क्यों इरा ! क्या तुम मेरी वाग्दत्ता पनी नहीं हो ? क्या हम लोगों का वह्नि वदी के सामने परिणय नहीं होने वाला था? क्या ।

हा होनेवाला था किंतु हुआ नहीं और बलराज ! तुम मेरी रक्षा नहीं कर सक | में श्राततायी के हाथ से कलंकित की गयी। फिर तुम मुझे पक्षी-रूप से कैसे ग्रहण करोगे ? तुम वीर हो । पुरुष हो । तुम्हारे पुरुषार्थ के लिए बहुत सी मह वाकांक्षाएँ हैं। उहें खोज लो मुझे भगवान् की शरण में छोड़ दो। मेरा जीवन अनुताप की वाला से मुलसा हुआ मेरा मन अब स्नेह के योग्य नहीं ।

प्रेम की पवित्रता की परिभाषा अलग है इय! मैं तुमको प्यार करता हूँ। तुम्हारी पविनता से मेरे मन का अधिक सम्ब ध न भी हो सकता है। चलो हम और कुछ भी हो मेरे प्रेम की वहि तुम्हारी पवित्रता को अधिक उज्ज्वल कर देगी।

भाग चलूँ क्यों ? सो नहीं हो सकता। मैं क्रीत दासी हूँ। म्लेच्छों ने मुझे मुलतान की लूट म पकड़ लिया । मैं उनकी कठोरता म जीवित रह कर बराबर उनका विरोध ही करती रही । नित्य कोड़े लगते । बाँध कर मैं लटकाई जाती । फिर भी मैं अपने हठ से न डिगी। एक दिन कन्नौज के चतुष्पद पर घोड़ों के साथ ही बेचने के लिए उन आततायिया ने मुझे भी खड़ा किया। मैं विकी पाँच सौ दिरम पर काशी के ही एक महाजन ने मुझे दासी बना लिया। बक्षराज ! तुमने न सुना होगा कि मैं किन नियमों के साथ बिकी हूँ मैंने लिखकर स्वीकार किया है इस घर का कुसित से भी कुत्सित कर्म फलंगी और कभी विद्रोह न करूगी। न कभी भागने की चेष्टा कलगी न किसी के कहने से अपने स्वामी का अहित सोचूंगी । यदि मैं आमहत्या भी कर बाखू, तो मेरे स्वामी या उनके कुटुम्ब पर कोई दोष न लगा सकेगा। वे गंगा-स्नान किये से पवित्र हैं। मेरे सम्बध में वे सदा ही शुद्ध और निष्पाप हैं।