सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:आँधी.djvu/७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६९
घीसू
                  घीसू
 ओह ! मैं बदमाश हूँ! मरा ही खाती है और मुझ से ही

ठहर तो देखूँ किसके साथ तू यहा पाई है जिसके भरोसे इतना बढ बढकर बातें कर रही है ! पाजी लुची भाग नहीं तो छुरा भोक दुँगा ।

छुरा भोकेगा ! मार डाल हयारे ! म आज अपनी और तरी जान दूंगी और लूँगी-तुझे भी फासी पर चढवाकर छोड़गी !

एक चिल्लाहट और धकाधका का श द हुआ । घीसू से अब न रहा गया उसने बगल म दरवाजे पर धक्का दिया खुला हुआ था भीतर धूम फिरकर पलक मारते मारते घीसू कमरे म जा पहुँचा। बिदो गिरी हुई थी और एक अधेड़ मनुष्य उसका जूड़ा पकड़े या। घीसू की गुलाबी श्राखों से खून बरस रहा था । उसने कहा-है । यह औरत है इसे

मारनेवाले ने कहा- तभी तो इसी क साथ या तक थाई हो! लो यह तुम्हारा यार आ गया।

विदो ने घूम कर देखा--घीसू ! वह रो पड़ी। अधेड़ ने कहा-ले चली जा मौज कर! आज से मुझे अपना मुंह मत दिखाना

घीसू ने कहा -भाई तुम विचिन मनुष्य हो । लो चला जाता हूँ। मैंने तो कुरा भोंकने इत्यादि और चिल्लाने का शब्द सुना इधर चता आया । मुझ से इस तुम्हारे झगड़े से क्या सम्बध ! जाश्रो सीधे इसे लेकर चले जायो-जहाँ से ले आये हो वहा ले जाश्रो ! बात बनाने का काम नहीं।

मैं कहाँ ले जाऊँगा भाई ! तुम जानो तुम्हारा काम जाने । लो मैं जाता हूँ-कह कर घीसू जाने लगा। बिदो ने कहा-ठहरो।