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पृष्ठ:आँधी.djvu/७५

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आँँधी


नशा था जिससे कई दिना के लिए भरपूर तृप्ति हो जाती वह मूक मानसिक विनोद था।

घीसू नगर के बाहर गोधूलि की हरी भरी क्षितिज रखा में उसके सौदर्य से रंग भरता गाता गुनगुनाता और आनन्द लेता । घीसू की जीवन यात्रा का वही सम्बल था वरी पाथेय था।

सध्या की शन्यता बूटी की गमक तारों की रसीली गुनाहट और न बाबू की बीन सब बि दो की आराधना की सामग्री थी। घीसू कल्पना के सुख से सुखी होकर सो रहता।

उसने कभी विचार भी न किया था कि बिदो कौन है ? किसी तरह से उसे इतना तो विश्वास हो गया था कि वह एक विधवा है परतु इससे अधिक जानने की उसे जैसे आवश्यकता नहीं ।

रात के आठ बजे थे घीसू बाहरी ओर से लौट रहा था। सावन के मेघ घिरे थे फूही पड़ रही थी। घीसू गा रहा था-निसि दिन बरसत नन हमारे।

सड़क पर कीचड़ की कमी न थी। वह धीरे धीरे चल रहा था गाता जाता था । सहसा वह रुका । एक जगह सड़क में पानी इकट्ठा था। छीटों से बचने के लिए वह ठिठक कर-किधर से चलें-सोचने लगा। पास के बगीचे के कमरे से उसे सुनाई पड़ा-यही तुम्हारा दर्शन है- यहाँ इस मुँहजली को लेकर पड़े हो । मुझसे ।

दूसरी ओर से कहा गया-तो इसम क्या हुआ| क्या तुम मेरी थाही हुई हो जो मैं तुम्हें इसका जवाब देता फिरूँ?- इस शब्द में भर्राहट थी शराबी की बोल थी।

घीसू ने मुना बिदो कह रही थी -मैं कुछ नहीं हूँ लेकिन तुम्हारे साथ मैने धरम बिगाड़ा है सो इसलिए नहीं कि तुम मुझे फटकारते फिरो। मैं इसका गला घोट दूँगी और-और तुम्हारा भी -बदमाश ।