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आकाश-दीप
 


ही अभिराम थे, जितने किसी राज-मन्दिर में कला-कुशल शिल्पी के उत्तम शिल्प।

एक शिलाखण्ड पर वैरागी पश्चिम की ओर मुँह किये ध्यान में निमग्न था। अस्त होनेवाले सूर्य की अन्तिम किरणें उसकी बरौनियो में घुसना चाहती थीं, परन्तु वैरागी अटल, अचल था। बदन पर मुसकिराहट और अंग पर ब्रह्मचर्य्य की रूक्षता थी। यौवन की अग्नि निर्वेद की राख से ढँकी थी। शिलाखण्ड के नीचे ही पगडण्डी थी। पशुओं को झुण्ड उसी मार्ग से पहाड़ी गोचर-भूमि से लौट रहा था। गोधूलि मुक्त गगन के अंक में आश्रय खोज रही थी। किसी ने पुकार---"आश्रय मिलेगा?"

वैरागी का ध्यान टूटा। उसने देखा, सचमुच मलिन-वसना गोधूलि उसके आश्रम में आश्रय मॉग रही है। अंवल छिन्न बालो की लटें, फटे हुए कम्बल के समान माँसल वक्ष और स्कन्ध को ढँकना चाहती थीं। गैरिक वसन जीर्ण और मलिन। सौंदर्य्य-विकृत आँखें कह रही थीं कि, उन्होंने उमंग की रातें जगते हुए बिताई हैं। वैरागी अकस्मात् ऑधी के झोंके में पड़े हुए वृक्ष के समान तिलमिला गया। उसने धीरे से कहा..."स्वागत अतिथि। आओ।"

रजनी के घने अन्धकार में तृण-कुटीर, वृक्षावली, जगजगाते हुए नक्षत्र, धुँधले चित्रपट से सदृश प्रतिभासित हो रहे थे। स्त्री अशोक के नीचे वेदी पर बैठी थी, वैरागी अपने कुटीर के द्वार पर।

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