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प्रणय-चिन्ह
 

'मैं देखता चलूँगा, खेता चलूँगा। बिना देखे भी कोई खे सकता है।'

'अच्छा वही सही। देखो, पर खेते भी चलो। मेरा प्रिय कहीं लोट न जाय, शीघ्रता करो।' रमणी की उत्कण्ठा उसके उभरते हुए वक्षस्थल में श्वास बनकर फूल रही थी। सेवक डाँड़ें चलाने लगा। दो-चार नक्षत्र नील गगन से झाँक रहे थे। अवरुद्ध समीर नदी की शीतल चादर पर खुल कर लोटने लगा। सेवक तल्लीन होकर खे रहा था। रमणी ने पूछा---"तुम्हारे और कौन है!"

'कोई नहीं, केवल माँ है।'

नाव किनारे पहुँच गई। रमणी उतर कर खड़ी हो गई। बोली---"तुमने बड़े ठीक समय से पहुँचाया। परन्तु मेरे पास क्या है जो तुम्हें पुरस्कार दूँ।"

वह चुपचाप उसका मुँह देखने लगा है।

रमणी बोली---'मेरा जीवन-धन जा रहा है। एक बार उससे अन्तिम भेंट करने आई हूँ। एक अँगूठी उसे अपना चिह्न देने के लिए लाई हूँ। और कुछ नहीं है। परन्तु तुमने इस अन्तिम मिलन में बड़ी सहायता की है, तुम्हीं ने उसका सन्देश पहुँचाया। तुम्हें कुछ दिये बिना हमारा मिलन असफल होगा, इसलिए, यह चिह्न अँगूठी तुम्हीं ले लो।'

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