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आकाश-दीप
 


सेवक ने अँगूठी लेते हुए पूछा---"और तुम अपने प्रियतम को क्या चिह्न दोगी?"

'अपने को स्वयं दे दूँगी। लौटना व्यर्थ है। अच्छा धन्यवाद!' रमणी तीर-वेग से चली गई।

वह हक्का-बक्का खड़ा रह गया। आकाश के हृदय में तारा चमकता था; उसके हाथ में अँगूठी का रत्न। उससे तारा का मिलान करते-करते झोंपड़ी में पहुँचा। माँ भूखी थी। इसे बेचना होगा, यही चिन्ता थी। माँ ने जाते ही कहा---'कब से भोजन बनाकर बैठी हूँ, तू आया नहीं।' बड़ी अच्छी मछली मिली थी। ले जल्द खा ले। वह प्रसन्न हो गया।

एकान्तवासी बैठा हुआ खजूर इकट्ठा कर रहा था। अभी प्रभात का कोमल सूर्य खगोल में बहुत ऊँचा नहीं था। एक सुनहली किरण-सी रमणी सामने आ गई। आत्मविस्मृत होकर एकान्तवासी देखने लगा।

"स्वागत अतिथि! आओ, बैठो।"

रमणी ने आतिथ्य स्वीकार किया। बोली---"मुझे पहचानते हो?"

"तुम्हें न पहचानूँगा प्रियतमे! अनन्त पथ का पाथेय कोई प्रणय-चिह्न ले आई हो तो मुझे दे दो। इसीलिए ठहरा हूँ।'

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