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आकाश-दीप
 

"कौन है?"

"पथिक हूँ, आश्रय चाहिये"---उत्तर मिला।

"तुषारावृत अँधेरा पथ था। हिम गिर रहा था। तारों का पता नहीं, भयानक शीत और निर्जन निशीथ। भला ऐसे समय में कौन पथ पर चलेगा? वातायन का परदा हटाने पर भी उपासिका लज्जा झॉक कर न देख सकी कि कौन है। उसने अपनी कुभावनाओं से डर कर पूछा---"आप लोग कौन है।"

"आहा, तुम उपासिका हो! तुम्हारे हृदय में तो अधिक दया होनी चाहिये। भगवान् की प्रतिमा की छाया में दो अनाथों को आश्रय मिलने का पुण्य हैं।"

"लज्जा ने अर्गला खोल दी। उसने आश्चर्य से देखा, एक पुरुष अपने बड़े लबादे में आठ-नौ बरस के बालक और बालिका को लिये भीतर आकर गिर पड़ा। तीनों मुमूर्ष हो रहे थे। भूख और शीत से तीनों विकल थे। लज्जा ने कपाट बन्द करते हुए अग्नि धधका कर उसमें कुछ गंध-द्रव्य डाल दिया। एक बार द्वार खुलने पर जो शीतल पवन का झोंका घुस आया था, वह निर्बल हो चला।"

"अतिथि-सत्कार हो जाने पर लज्जा ने उनका परिचय पूछा। आगंतुक ने कहा-मंगलो-दुर्ग के अधिपति देवपाल का मैं भृत्य हूँ। जगद्दाहक चंगेजखाँ ने समस्त गांधार प्रदेश को जलाकर, लूट, पाट कर उजाड़ दिया, और कल ही इस उद्यान के मंगली-दुर्ग पर

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